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________________ ३५९ शब्द भी, जो आस्त्र शब्द है वह आम्ररूप अर्थ का वाचक है इस वाच्य-वचिक भाव के ज्ञान की सहायता से श्राम्ररूप अर्थ का प्रतिपादन करता है । यह ज्ञान भी मुद्रा के सच्चे खोटे होने के ज्ञान के समान अनुमान से भिन्न है । व्याप्ति की अपेक्षा के होने पर भी सच्ची और खोटी मुद्रा का ज्ञान इन्द्रिय से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष है. इसी प्रकार व्याप्ति की अपेक्षा होनेपर भी शब्द से उत्पन्न होने के कारण यह ज्ञान भी अनुमान से भिन्न है। यहां शंका हो सकती है- सच्ची खोटी मुद्रा को पहचानने के लिये पहले व्याप्ति ज्ञान की अपेक्षा होती है और पीछे अभ्यास हो जाने पर व्याप्ति की अपेक्षा नहीं रहती अतः यह प्रत्यक्ष है । परंतु जब व्याप्ति की अपेक्षा हो तो यह ज्ञान अनुमान होता है। देखनेवाला अनुमान करता है-- पहले जिन खोटी मुद्राओं को मैंने देखा था उनके रूप स्पर्श आदि विशेष प्रकार के थे । वे जिस प्रकार के थे उसी प्रकार के रूप आदि इस मुद्रा के भो हैं जिसको मैं देख रहा हूं। इसलिये यह भी खोटी है । इसका समाधान इस प्रकार है- जो कुछ आपने कहा है वह आगम प्रमाण में भी समान रूप से कहा जाता है । अभ्यास की अवस्था में व्याप्ति की अपेक्षा शब्द में भी नहीं होती । सुनते ही वाच्य अर्थ का ज्ञान हो जाता है । जब अभ्यास नहीं होता तब शब्द भी अनुमानरूप होता है । आम्र शब्द वाचक है और विशेष प्रकार का वृक्ष वाच्य है, इस वाच्य वाचक भाव को जो भूल गया है. वह किसी काल में आ शब्द को सुनने पर अनुमान करने लगता है- आम्र शब्द जब जब बोला जाता है तब का ज्ञान कराता है । चैत्र आदिने तब विशेष प्रकार के वृक्ष जब कभी आत्र शब्द का
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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