________________
३५५
नहीं है तो वह वादी की अपेक्षा से संदिग्धासिद्ध और प्रतिवादी की अपेक्षा से स्वरूपासिद्ध होगा। इस प्रकार प्रकरणसम हेत्वाभास असिद्ध के अन्तर्गत है।
नवीन नैयायिक प्रकरणसम को सत्प्रतिपक्ष नाम से कहते हैं । उनके अनुसार जिस काल में एक हेतु साध्य की सिद्धि के लिए बोला जाता है उसी काल में साध्य के विरुद्ध साध्याभाव का साधक हेतु सत्प्रतिपक्ष होता है। दोनों हेतुओं में अप्रामाण्य का ज्ञान नहीं होता । अप्रामाण्य के समान दोनों हेतुओं में प्रामाण्य का ज्ञान भी नहीं होता। वादी और प्रतिवादी दोनों अपने अपने हेतुओं को विरोधी साध्यों के अभाव का साधक मानते हैं। इस मत के अनुसार भी साध्या. भाव के साधक हेतु की व्याप्ति यदि निश्चित है, तो साध्य की सिद्धि हो जानी चाहिये और यदि व्याप्ति निश्चित नहीं है तो हेतु असिद्ध हो जायगा। कोई इस प्रकार का स्वरूप नहीं है जिसके कारण सत्प्रतिपक्ष को असिद्ध से भिन्न कहा जा सके।
प्राचीन और नवीन नैयायिकों के प्रकरणसम और सत्प्रतिपक्ष में कुछ भेद है। प्राचीन नैयायिकों ने जो उदाहरण दिया है उससे प्रतीत होता है, वादी और प्रतिवादी विरोधी साध्य के साधक धर्म की अनुपलब्धि को हेतुरूप में जब कहते हैं तब दोनों हेतु परस्पर की अपेक्षा से प्रकरणसम होते हैं। नित्य धर्म और अनित्य धर्म की अनुपलब्धिरूप दो प्रकरणसम हेतु विशेष धर्म के अज्ञानरूप हैं। नवीन नैयायिकों के अनुसार एक वादी यदि पर्वत में वह्नि को सिद्ध करने के लिये धूम को हेतुरूप में कहे और दूसरा पर्वत में वह्नि के अभाव को सिद्ध करने के लिए पाषाणमयत्व को हेतुरूप में कहे तो 'पर्वत वह्निवाला है धूम होनेसे, महानस के समान'