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________________ ३५३ नहीं रहता। वृक्ष है अथवा पुरुष है-इस प्रकार का निश्चय हो जाता है। प्रत्यक्ष विषय में सन्देह की उत्पत्ति का यह स्वरूप है । जहां विषय प्रत्यक्ष नहीं है वहां पर भी यदि विशेष धर्मों की प्रतीति न हो और उसी अप्रतीति को किसी एक विरोधी धर्म को सिद्ध करने के लिए हेतुरूप में कहा जाय तो सन्देह होने लगता है। वादी अथवा प्रतिवादी जब विशेष धर्म के अज्ञान को किसी एक विरोधी धर्म को सिद्धि के लिये हेतुरूप में प्रयोग करता है, तो प्रतिपक्षी भी. अपने साध्य की सिद्धि के लिये विशेष धर्म के अज्ञान को हेतुरूप में कहता है, । इस प्रकार विशेष धर्मो का अज्ञान, वादी और प्रतिवादी के लिये विरोधी साध्यों का साधकरूप हो जाता है। पक्ष और प्रतिपक्ष के लिए समान होनेके कारण इसको प्रकरणसम कहा जाता है। पक्ष और प्रतिपक्ष को प्रकरण कहते हैं । जो प्रकरण में सम है वह प्रकरणसम है। प्राचीन नैयायिकों के अनुसार प्रकरणसम का यह स्वरूप है। इसका उदाहरण-शब्द अनित्य है, नित्य के धर्म का उपलम्भ न होनेसे, घट आदिके समान । जो नित्य होता है, उसमें नित्य के धर्म का अज्ञान नहीं होता। आत्मा आदि नित्य अथ हैं, उनमें नित्य के धर्म का अज्ञान नहीं है । इस प्रकार एक जब नित्य धर्म के अज्ञान को अनित्यत्वरूप साध्य की सिद्धि के लिये हेतरूप में प्रयोग करता है तो दूसरा कहता है-यदि इस रीति से पाप अनित्यता को सिद्ध करते हैं तो नित्यत्व धर्म की सिद्धि भी इस रीति से हो सकती है । शब्द नित्य है, अनित्य अर्थ के धर्म के अज्ञात होनेसे, आत्मा आदिके समान । जो अनित्य होता है उसमें अनित्य के धर्म का अज्ञान नहीं होता। घट आदि इसमें दृष्टांत हैं। विशेष
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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