SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थः-साध्य के विपरीत के साथ जो हेतु व्याप्त है वह विरुद्ध है । जिस प्रकार-ग्रन्द अपरिणामी है कृतक होने से । अपरिणामित्व के विरुद्ध परिणामित्व से • कृतकत्व व्याप्त है। विवेचना:-बादी जिस हेतु को साध्य की सिद्धि के लिये प्रयुक्त करता है उस हेतु की व्याप्ति वास्तव में यदि साध्य के अभाव के साथ हो, तो हेतु विरुद्ध होता है । यहां प्रयोग का करनेवाला कृतकत्व हेतु को अपरिणामित्व की सिद्धि के लिये कहता है । परन्तु उसकी व्याप्ति अपरिगामित्वरूप साध्य के साथ नहीं है, किन्तु अपरिणामित्व से विरुद्ध परिणामित्व के साप है। परिणामित्व का अभाव अपरिणामित्व है । अपरिणामित्व का अभाव परिणामित्व है। अपरिणामित्व भौर परिणामित्व में परस्परामावरूप विरोध है। पूर्व भाकार का त्याग और उत्तरवर्ती आकार की प्राप्ति के साथ प्रग्यरूप में स्थिति परिणाम है। इस परिणाम के साथ कृतकत्व की ग्याप्ति है। भर्ष यहि सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक हो, तो पूर्व आहार का त्याग और उत्तर आकार का ग्रहण नहीं हो सकता। यहां कृतकस्वरूप धर्म को सिद्धि शम में अपरिणा. मित्व के अभाव को सिद्ध करती है । हेतु की अनिधि यहां पर साध्य के ममाव को नहीं सिद्ध करती। इस कारण विरुद्ध असिद्ध से भिन्न है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy