SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं कर सकता। इस अशक्ति में भी अपने हेतु को असिद्ध नहीं मानता। इस दशा में अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास के कारण वादी का निग्रह होता है, परन्तु इतने निग्रह से वाद का अन्त नहीं होता कुछ काल के अनन्तर वादी यदि हेतु का समर्थन करे तो हेतु अन्यतरासिद्ध नहीं रहता । वादी अथवा प्रतिवादी हेतु में जिस दोष का प्रकाशन करता है उसके परिहार के लिये अवसर देना चाहिये । केवल असिद्ध कह देने से पराजय नहीं होता । उचित अवसर पर यदि दोष का परिहार न करे तो पराजय होता है । असिद्ध है, इतने वचन से ही निर्दोष हेतु हेत्वाभास नहीं हो जाता । इसी कारण जब प्रमाणों के द्वारा हेतु का समर्थन हो सकता हो, तब यदि विस्मरण अथवा सभा क्षोभ के कारण प्रमाणों का प्रकाशन न हो तो वास्तव में अन्यतरासिद्ध कहा जाने वाला हेतु निर्दोष होता है। उस दशा में उसको असिद्धता गौण ही होती है । प्रमाणों के द्वारा सिद्धि का प्रकाशन नहीं हुआ इसलिये वह भसिद्ध है, उसका स्वरूप असिद्ध नहीं है । भ्रम होने पर भी जिस प्रकार रत्न, रत्न ही होता है इस प्रकार हेतु वास्तव में हेतु ही होता है। मूलम्:-तथा, स्वयमनभ्युपगतोऽपि परस्य सिद्ध इत्येतावान (इत्येतावते) वोपन्यस्तो हेतु. रन्यतरासिडोनिग्रहाधिकरणम्, यथा साङ्ख्यस्य जैनं प्रति 'अचेतनाः सुखादय उत्पत्तिमत्वात् घटवत् , इति । अर्थः-इसी प्रकार मैं नहीं स्वीकार करता परंतु प्रतिवादी स्वीकार करता है केवल इतने से जिसका
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy