________________
३३२
विवेचना:-वादी और प्रतिवादी जब तक प्रमाणों के द्वारा अपने हेतु की दूसरे के लिये सिद्धि नहीं करते तब तक वह हेतु दूसरे के लिये असिद्ध है; अतः अन्यतरासिद्ध है । इस आक्षेप के उत्तर में पूर्वपक्षी कहता है। यदि इस रीति से मसिद्धता हो, तो वह असिद्धता तात्त्विक नहीं है। प्रमाण होने पर भी यरि प्रमाणों का प्रकाशन न हो, तो उससे दोष रहित अर्थ दूषित नहीं हो जाता। मिथ्यारूप में ज्ञान होने पर भी जिसप्रकार रत्न मिथ्या नहीं होता, इस प्रकार स्वतः प्रमाण द्वारा सिद्ध हेतु प्रमाण का प्रकाशन न होनेसे मसिद्ध नहीं हो सकता । इस दशा में वह हेतु निर्दोष हेतु है। वह अन्यतरामिड हेत्वाभास नहीं हो सकता।
मलम्-किश्व, भन्यतरासिडो यदा इत्या. भासस्तदा वादी निगहीतो स्यात्, न च निगहीतस्य पश्चादनिग्रह इति युक्तम् । नापि हेतु समर्थनं पश्चाधुक्तम् निग्रहान्तस्वाहारस्येति ।
अर्थ-अन्य दोष भी है-अन्यतरासिद जब हेत्वाभास है तब वादी निग्रह को प्राप्त होगा और जो निग्रह को प्राप्त हो गया है उसका उत्तरकाल में अनिग्रह युक्त नहीं है। निग्रह को प्राप्त हो जाने के अनन्तर हेतु का समर्थन भी युक्त नहीं है, कारण-निग्रह वाद का अन्त है।
विवेचना:-निग्रह स्थान अनेक हैं। उनमें हेत्वाभास की निग्रहस्थानरूप में गणना है। अन्यतरासिद्ध यदि हेत्वाभास