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का सर्वथा अभेद है। शिशपा वृक्ष का कार्य नहीं इसलिये वह वक्ष को अनुमिति कराती है। यह स्वभाव हेतु जैन मत के अनुसार व्याप्यरूप है। परिणामरूप साध्य के साथ प्रयत्न से उत्पत्ति का जिस प्रकार भेद और अभेद है इस प्रकार तक्ष रूप साध्य के साथ शिशपा का भेद और अभेद है। अतः शिशपारूप स्वभाव हेतु भो व्याप्यरूप है। यद्यपि व्याप्य धर्म से साध्य धर्म अभिन्न है तो भी व्याप्य का जब निश्चय होता है तभी उससे बभिन्न साध्य का निभ्रय नहीं होता । अर्थ अनेक स्वभाववाले हैं । अतः शब्द में जब प्रयत्न से उत्पत्ति. रूप धर्म का निश्चय होता है तभी उससे अभिन्न अनित्यत्वरूप परिणाम का निश्चय नहीं होता । एक ही अथ में एक स्वभाव निश्चित और अन्य स्वभाव अनिश्चित होता है । हेतुरूप धर्म निश्चित है परन्तु साध्यरूप धर्म निश्चित नहीं है, इसलिये भेद और अभेद होनेके कारण व्याप्य हेतु से साध्य धर्म का अनुमान होता है । प्रयत्न से उत्पत्तिरूप हेतु के समान शिशपारूप हेतु साध्य का निश्चय करा सकता है। - मूलम्:-कश्चित्कार्यरूपः, बथा पर्वतोऽय
मग्निमान् धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र धूमः, धूमो यग्नेः कार्यभूतः तदभावेऽनुपपद्यमानोऽग्निं गमयति । ___ अर्थः-कोई हेतु कार्यरूप होता है। जिस प्रकार यह पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होने से । अग्निमान न हो तो धूमवान नहीं हो सकता । इस अनुमान में धूम. कार्यरूप है, धूम अग्नि का कार्य है। अग्नि