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________________ २८ अनुसार बुद्धि को उत्पत्तिवाली मानता है.तब उसको अचेतन नहीं मानता। उसके अनुसार बुद्धि किसी अचेतन द्रव्य का परिणाम नहीं है। वादी और प्रतिबादी दोनों को प्रमाण द्वारा सिद्ध अथं हो स्वीकार करना चाहिये। इसलिये केवल प्रतिवादी के मतसे सिद्ध हेतु के द्वारा किसी अर्थ की सिद्धि नहीं होती। परीक्षा करके ही अर्थ को मानना चाहिये। जो प्रतिबादी बुद्धि की उत्पत्ति को स्वीकार करता है परन्तु उसकी अचेतनता को नहीं स्वीकार करता उसके लिये यदि आप सांख्य के अनुमान को कहो तो भी युक्त नहीं है जब यह अनुमान प्रयुक्त होता है तब चेतन बुद्धि के प्रतिपादक अगम का निराकरण हो जाता है। उस अवस्था में यह आगम प्रमाणमूत नहीं हो सकता । सांख्य जब इस अंश में आगम को अयुक्त कहता है और प्रतिपदो जंन उसको सह लेता है तब उसके लिये भी जैन आगम प्रमाण भूत नहीं रहता। अत: प्रतिवादी जब परीक्षा की इच्छा से एक अंश में आगम को स्वीकार करता है और अन्य अंश में नहीं स्वीकार करता तब सिस अंश में स्वीकार करता है उस अंश में भी प्रामाण्य का स्वीकार नहीं रह सकता । अतः यह हेतु जिस प्रकार वादी के लिये असिद्ध है। इस प्रकार प्रतिवादी के लिये भी असिद्ध है। साध्य के साथ जिसको व्याप्ति निश्चित है इस प्रकार का प्रत्यक्ष अर्थ हो साध्य को सिद्धि करा सकता है । जो अर्थ वास्तव में नहीं है वह केवल प्रतीति से साध्य को नहीं सिद्र कर सकता। मूलम्:-नन्वेवं भवद्भिरपि कथमापाद्यते परं प्रति यत् सर्वथैकं तत् नानेकत्र सम्बध्यते, तथा व सामान्यम्' इति ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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