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प्रकार शास्त्रकारों की प्रवृत्ति ज्ञान देने के लिये होती है इस प्रकार वाद में भी प्रतिवादी को तत्त्व का ज्ञान कराने के लिये प्रवृत्ति हो सकती है। केवल विजय के अभिलाषी लोग वाद में प्रवृत्ति नहीं करते। जो लोग तत्त्व के निर्णय को इच्छा करते हैं, वे भी वाद करते हैं। उनके लिये प्रतिज्ञा का प्रयोग युक्त है। उपसंहार आदिके द्वारा पक्ष को जो नहीं जान सकते इस प्रकार के तत्त्वजिज्ञासु भी होते हैं। बाद में प्रतिवादी यदि विजय का अभिलाषी हो तो भी उसके लिये प्रतिज्ञा का प्रयोग अयुक्त नहीं हैं । विजय का अभिलाषी प्रतिवादी भी प्रतिज्ञा द्वारा पक्ष को बिना क्लेश के जानकर वादी के वचन से लाभ ले सकता है। शास्त्र में भी केवल तत्त्व जिज्ञासुओं के लिये तत्त्व का प्रतिपादन नहीं है। विजय के अभिलाषियों के लिये भी है । शास्त्र में भी अन्य वाक्यों के बल से पक्ष का ज्ञान हो सकता है। विजय के अभिलाषी और तत्त्व के जिज्ञासु दोनों प्रकार के लोग शास्त्र में प्रवृत्त होते हैं । इसलिये प्रायः शास्त्र में प्रतिज्ञा का प्रयोग है । इसी रीति से बाद में भी दोनों प्रकार के लोग प्रवृत्ति करते हैं । इसलिये प्रतिज्ञा का प्रयोग यदि प्रायः हो तो वह उचित है। जब प्रतिवादी कुशल है। मोर अन्य वचनों के बल से पक्ष को जान सकता है तो पक्ष के प्रयोग के लिये कोई आग्रह नहीं है । वहां पक्षवचन के बिना भी वाद हो सकता है।
मूलम्-आगमात्परेणैव जातस्य वचनं परार्थानुमानम् , यथा वुडिरचेतना उत्पत्तिमस्वात् घटवदिति साह्यानुमानम् । अत्र हि