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________________ प्रासंगिक-प्रस्तुत विवेचना और उपसंहार वि० सं० २०२७ में शेठ मोतीशा लालबाग जैन उपाश्रय [भूलेश्वर-बम्बई-४] मै आचार्य श्री विजय जितमृगाङ्क सूरीश्वरजी (उसकाल में पंन्यास श्री मृगाङ्कविजयजीगणिवर) के शिष्य मुनि रत्नभूषणविजय और मुनिहेमभूषणविजय को उपाध्यायजी की तर्कभाषा के अध्यापन का मुझे सुअवसर मिला। अध्ययन के अवसर पर प्रायः मुनिप्रवर तर्कभाषा की इस प्रकार की व्याख्या का निर्माण करने के लिये प्रेरित करते थे। जिससे अभ्यासी जन पदों के अर्थ के साथ युक्ति क्रम को भी स्पष्टरूप से जान सकें । उनको इस प्रेरणा को ध्यान में रखकर मैंने व्याख्या में पहले सामान्य रूप से हिन्दी में अनुवाद दिया है। फिर हेतुओं को स्पष्ट करने का यत्न किया है स्पष्ट करने के लिये विशेष ध्यान देने से प्रायः पुनरुक्ति व्याख्या में दिखाई देगी। मैंने उपयोगी समझकर इसका आश्रय लिया है। उपाध्यायजीने जिन हेतुओं को सिद्धि के लिये प्रयुक्त किया है, उनका सरलता के साथ उपपादन करने में विस्तार अनिवार्य रूप से हुआ है । जहां तक हो सका, अभ्यासी जन के लिये अनावश्यक शंका और परिहार से बचता रहा है। अध्यापन के अवसर पर मुनिवरों ने मेरा ध्यान कभी कभी उपाध्यायजो के पदों में अभिप्रेत अर्थ की ओर दिलाया । नाम आदि निक्षेपों के साथ नयों की योजना का निरूपण करते हुए उपाध्यायजी ने कहा है: ___ किञ्च इन्द्रादिसज्ञामात्रं तदर्थरहितमिन्द्रादिशब्दवाच्यं वा नामेच्छन् अयं भावकारणत्वाविशेषात् कुतो नाम स्थापनेनेच्छेत् ?'
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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