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________________ १८ - वादक और बौद्ध विद्वान अवान्तर मत भेदों के होने पर भी प्रमाणों को अर्थ के ज्ञान का साधन मानते थे। इसलिये उन्होंने अपने परीक्षा प्रधान ग्रन्थों के नामों में प्रमाण शब्द का प्रयोग किया है। जैन तर्क के अनुसार प्रमाण और नय दोनों, अर्थ के स्वरूप को प्रकाशित करते हैं । जैन विद्वानों ने वस्तु के स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये जिन ग्रन्थों का निर्माण किया है, उनमें से कुछ में प्रमाण और नय दोनों पदों का प्रयोग है। ग्यारहवीं शताब्दी के वादी देवसूरि के प्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम है-प्रमाणनयतत्त्वालोक । पू० उपाध्यायजी से पूर्व काल में नयचक्र के कर्ता श्री माइल्लधवल ने तर्क शब्द से प्रमाण-नय और निक्षेप को कहा है । नयचक्र में गाथा है- [पृ० ६५ गा० १६७ -] णिक्खेव-णय-पमाणं, दव्वं सुद्ध एव जो अप्पा। तक्क्रपवयण गाम, अज्झप्पं होई हु तिवगं । __इनसे पूर्व भट्ट अकलंक ने भी लघीयस्त्रय संग्रह में युक्ति शब्द से प्रमाण, नय और निक्षेप को कहा है। प्रमाण, नय और निक्षेप का प्रतिपादन करते हुए वे कहते हैं: ज्ञानं प्रमाणमात्मादे-रुपायो न्यास इष्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिपहः।। [तीसरा प्रवचन प्रवेश, छट्ठा परिच्छेद, श्लोक दूसरा यहां पर स्पष्ट ही युक्ति के द्वारा जीवादि पदार्थों के यथार्थ ज्ञानका प्रतिपादन कहा गया है। इस पद्य की व्याख्या में अभयचद्रसूरि युक्ति शब्द के द्वारा प्रमाण-नय और निक्षेपों का प्रतिपादन कहते हैं । युक्ति और तर्क में कोई भेद नहीं है ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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