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________________ २४३ जायगा । सांख्य का यह हेतु अनन्वय आदि दोषों से दपित है इस प्रकार बौद्ध कहते हैं। विवेचना:-बादी जिस अर्थ को जिस रूप में स्वीकार नहीं करता उस रूप में यदिबह अर्थ साध्य हो, तो साध्य को सिखि निष्फल हो जाती है । सांख्य मात्मा की सिद्धि के लिये मिस अनुमान का प्रयोग करता है वह इस विषय में उदाहरण है सांख्य का अनुमान है-चक्ष आदि इन्द्रिय पर के लिये हैं संधात रूप होनेसे. शय्या और आसनादि के समान । सोने के लिये शय्या है और बंठने के लिये आसन है । शय्या और आसन मारि परमाणुओं का समूह है इसलिये संहत है। . शय्या और आसनादि अपने लिये नहीं है । उपभोग करने बाले पुरुष के लिये हैं। इसलिये वे परार्थ कहे जाते हैं, जो संहतरूप है वह परार्थ है, यह व्याप्ति है । चक्षु भारि इन्द्रिय शय्या आदिके समान परमाणुओं का समूहरूप होने से संघातरूप हैं-इसलिये वे भी परार्थ हैं । जो पर है वही आत्मा है। इस रीति से सांख्य का अनुगामी संघात हेतु को आत्मा को मिद्धि के लिये प्रयुक्त करता है । यद्यपि प्रयोग में 'मात्मार्था' अर्थात् भात्मा के लिये हैं इस प्रकार नहीं कहता, केवल परार्थाः अर्थात् परके लिये हैं इस प्रकार कहता है तो भी परका अर्थ आत्मा मानना चाहिये। यदि 'पर' शब्द का अर्थ केवल पर अर्थात् स्व से भिन्न हो तो सांख्य जिस आत्मा को स्वीकार करता है उसकी सिद्धि न होगी । सांख्य मत में शरीर इन्द्रिय आदि संधातरूप हैं, परन्तु अरमा संघातरूप नहीं है। प्रकृति के जितने भी परिणाम हैं वे संघातरूप है। भात्मा प्रकृति का परिणाम नहीं, वह सर्वथा प्रकृति
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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