SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्पन होता है । यही अनुमिति है । इस रीति से स्वयं अग्नि को जानता है इसलिये यह स्वार्थानुमान है। मूलम्:-अत्र हेतुग्रहण-सम्बन्धस्मरणयोः समुदितयांरेव कारणत्वमवसेयम् , अन्यथा विस्मृनाप्रतिपन्नसम्बन्धस्थागृहोतलिङ्गकस्य च कस्यचिदनुमानोत्पादप्रसङ्गात् । अर्थ:-यहाँ पर हेतु का ज्ञान और संबंध का स्मरण ये दोनों मिलके कारण होते हैं । यदि इस प्रकार न हो तो जिसने व्याप्ति को नहीं जाना अथवा जानकर भी जो व्याप्ति को भूल गया है अथवा जिसने हेतु को नहीं जाना उसको भी अनुमान होना चाहिये । विवेचना:- अकेला हेतु का ज्ञान और व्याप्ति का स्मरण अनुमान का कारण नहीं है । पूर्व काल में जिसने व्याप्ति नहीं जानी, अथवा पूर्व काल में जिसने व्यानि जानी तो है परन्तु अब उसका स्मरण नहीं है. इन दो पुरुषों को हेतु का ज्ञान होने पर भी अनुमिति नहीं होती, इसलिये अकेला. हेतु का ज्ञान कारण नहीं है । जो पुरुष व्याप्ति का स्मरण तो करता है परन्तु इसकाल में उसे हेतु का ज्ञान नहीं हुआ उसको भी अनुमिति नहीं होती। इसलिये अकेला व्याप्ति का स्मरण कारण नहीं। ... . [-हेतु स्वरूप का निरूपण-] ... मूलम्:-निश्रितान्यथानुपपत्त्येक लक्षणो हेतुः, जतु विलक्षणकादिः।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy