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________________ २१० अप्रमाण होने पर भी यह तर्क प्रमाण का सहकारी है । संदेह के काल में विशेष धर्मो वा दर्शन प्रमाणभून इन्द्रिय का जिस प्रकार सहकारी होता है. इम प्रकार तर्क प्रत्यक्ष प्रमाण का सहकारी होता है। अंधकार और दूरी के कारण पुरो वर्ती अर्थ में 'यह स्थाणु है या नहीं' इस प्रकार का संशय उत्पन्न होता है । इस संदेह में एक कोटि स्थाणुःब है और दूसरी कोटि स्थाणुत्व का अभाव है। जब तक ऊँचाई रूप साधारण धर्म का दर्शन होता है और स्थाणु के अथवा स्वागु से भिन्न पुरुष के विशेष धर्मों का दर्शन नहीं होता, तब तक सदेह रहता है । शाखा-पत्र आदि स्थाणुत्व के व्याप्य और हस्तपाद आदि पुरुष के व्याप्य विशेष धर्म हैं। जब हस्त पाद आदि पुरुषत्व के व्याप्य विशेष धर्मों का दर्शन होता है, तब वह दर्शन चक्षु इन्द्रियरूप प्रमाण का सहकारी हो जाता है। उत्तरकाल में यह पुरुष है इस प्रकार का निश्चय होता है। इसी रीति से व्याप्य के आरोप द्वारा व्यापक का आरोप रूप यह तर्क भी प्रत्यक्ष प्रमाण का सहकारी हो जाता है। जब व्याप्ति के विरोध में व्यभिचार की शंका होती है तब अन्वय और व्यतिरेक का ज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाण व्याप्ति का निश्चय नहीं कर सकता परन्तु तर्क जब विरोध करनेवाली व्यभिचार की शंका को दूर - कर देता है तब अन्वय व्यतिरेक के ज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से व्याप्ति का निश्चय हो जाता है। पुरुष के निश्चय में हस्तपाद आदि विशेष धर्मों का दर्शन जिस प्रकार स्वतन्त्ररूप में प्रमाण नहीं, इसी प्रकार तर्कस्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाण जिस निश्चय को उत्पन्न करता है, उसमें तर्क मो कारण है। इसलिये वह प्रत्यक्ष का सहकारी हो सकता है । अथवा हस्तपाद आदि विशेष धर्मों का दर्शन स्थाणुत्व के
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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