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________________ boy - विवेचना:-जो अर्थ प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात है वही तकं का विषय नहीं है । समस्त साध्य साधनों की व्याप्ति तर्क का विषय है । उसके प्रकाशन में प्रत्यक्ष को शक्ति नहीं है । मर में जल जिस प्रकार कल्पित है इस प्रकार तर्क ज्ञान का विषय कल्पित भी नहीं है । साध्य साधन भाव तर्क का विषय है और वह पारमार्थिक है। इस विषय में आपका आक्षेप इस प्रकार है-समस्त साध्य-साधनों का ज्ञान सामान्य के बिना नहीं हो सकता। जैनमत के अनुसार सामान्य समस्त व्यक्तियों में रहता है । इस प्रकार के सामान्य की सत्ता सत्य नहीं किन्तु कल्पित है। कल्पित सामान्य का आश्रय लेकर व्यापक रूप में साध्य-साधन भाव अथवा वाच्य-वाचक भाव का प्रकाशन करने वाला तर्क-ज्ञान मरु में जलज्ञान के समान अप्रमाण है। यह आक्षेप युक्त नहीं है । सामान्य कल्पित नहीं है । व्यक्तियों से भिन्न और अभिन्न समान्य पारमार्थिक है। फिर आपके मत के अनुसार तो कल्पित सामान्य का आश्रय लेने से तर्क ज्ञान अप्रमाण नहीं हो सकता। अनुमान को प्रमाण कहते हो। आपके मतके अनुसार अनुमान कल्पित सामान्य का आश्रय लेकर उत्पत्र होता है । सामान्य का ग्राहक होने पर भी अनुमान जिस प्रकार प्रमाण है इसप्रकार तक भी प्रमाण हो सकता है : आपके मतमें आमान्य “अतद् व्यावृत्ति रूप" है। इसके अनुसार धूम से जो अर्थ भिन्न है. उनका भेद धूम में प्रतीत होता है अन्य वस्तुओं से भिन्न होने के कारण समस्त धूम परस्पर भिन्न होने पर भी समान प्रतीत होते हैं । इसलिये सामान्य अन्यों का भेद रूप है। यह भेद कल्पित है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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