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शब्द है । प्रवृत्ति का कोई अन्य कारण उपस्थित नहीं है। प्रयोजक पुरुष ने जब शब्दों का प्रयोग किया उसके उत्तरकाल में इसकी प्रवृत्ति हुई। इस कारण प्रयोज्य पुरुष को अर्थ का ज्ञान शब्द द्वारा हआ है। इस प्रकार वह मानता है । जब प्रयोज्य पुरुष 'गो को लाता है' तब वह अनुमान करता है, प्रयोज्य पुरुष को इस अर्थ का ज्ञान इन शब्दों से हुआ है। जो वाक्य सुना है वह दो पदों का समूहरूप है । उत्तरकाल में किस पद का क्या अर्थ है इस प्रकार उसको संदेह होता है। अन्यकाल में वही मनुष्य "गौ को ले जा" इस प्रकार सुनता है । इससे वह विचार करता है-इस वाक्य में 'गो' शब्द वही है जो पूर्व वाक्य में था, परन्तु 'लाओ' शब्द यहाँ नहीं है । उत्तरकाल में "घोडे को लाओ" इस प्रकार सुनता है । वहाँ पर गौ शब्द नहीं है, परन्तु "लाओ" वही शब्द है जो प्राचीन वाक्य में था। इस प्रकार जो निश्चय होता है उसके अनुसार वह गौ आदि शब्दों के समान गौ आदि अर्थों की भी अनुवृत्ति और व्यावृत्ति जान लेता है । इस रीति से एक पद के उद्वाप अर्थात् अपनय और अवाप अर्थात् अन्यपद के प्रयोग द्वारा इस प्रकार की जाति का अर्थ वाच्य है और इस प्रकार की जाति का शब्द वाचक है इस रीति से उसको समस्त शब्दों और समस्त अर्थों में वाच्यवाचकमाव का ज्ञान तर्क से होता है।
मूलम्:-अयं च तर्कः सम्बन्धप्रतीत्यन्तरनिरपेक्ष एव स्वयोग्यतासामर्थ्यात्सम्बन्धप्रतीतिं जनयतीति नानवस्था।
अर्थ:--यह तर्क प्रमाण संबंध की प्रतीति की