SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन अवान्तर भेदों के कारण ज्ञान के स्वरूप में भेद उचित - नहीं। जिस प्रकार एकत्व विषय में पूर्वाफ्र देश-काल के : संबंध का प्रकाशक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इस प्रकार सादृश्य में पूर्वापर देश-काल के साथ संबंध का प्रकाशक ज्ञान भी प्रत्यभिज्ञान स्वरूप ही होना चाहिए । संकलन प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप है। वह एकता और सादृश्य के ज्ञानों में समान रूप से है। मलम्:-अन्यथा गोविसदृशो महिषः' इत्यादेरपि सादृश्याविषयत्वेनोपमानातिरेके प्र. माणसंख्याव्याघात प्रसङ्गात् ।।.. ___ अर्थः-यदि इस प्रकार न हो तो 'भैस गाय से विलक्षण है" इत्यादि ज्ञान भी सादृश्य के विषय में न होने के कारण उपमान से अतिरिक्त हो जायगा । इस रीति से प्रमाणों की नियत संख्या में व्याघात की आपत्ति आयगी। विवेचना:-यदि एकत्व का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान हो और सादृश्य का ज्ञान उससे भिन्न उपमान प्रमाण हो, तो विलक्षपता का ज्ञान, प्रत्यभिज्ञान और उपमान से भिन्न प्रमाण हो : जाना चाहिए। जिस प्रकार गषय का द्रष्टा गाय का स्मरण करके "इस गवय के समान गाय है। इस प्रकार जानता है, "इसी रीति से भैंस का द्रष्टा गाय का स्मरण करके भैंस गाय से विलक्षण है" इस प्रकार मानता है। विलक्षणता की प्रतीति का विषय एकता नहीं है, अतः विलक्षणता का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान रूप नहीं हो सकता। सादृश्य के विषय में नहीं
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy