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________________ अर्थः-इसीलिए एक अन्य मत का भी खंडन हो जाता है । इस अन्य मत के अनुसार प्रत्यभिज्ञान एक ज्ञान नहीं है। किन्तु अनुभव और स्मरण रूप दो ज्ञानों के रूप में है । जिनमें असंसर्ग का ज्ञान न हो इस प्रकार के अनुभव और स्मरण दो होने पर भी प्रत्यभिज्ञान इस एक नाम से कहे जाते हैं । इस मत का खंडन करने वाला कहता है-इस रीति से यदि प्रत्यभिज्ञान दो ज्ञानों के रूप में हो, तो समस्त विशिष्ट ज्ञानों का विनाश हो जायगा । विवेचना:-प्रमाकर मत के अनुगामी लोग कहते हैंअनुभव और स्मरण रुप दो ज्ञानों का एक नाम प्रत्यभिज्ञान है। दो ज्ञानों में जो भेद है, उसका ज्ञान न होनेसे एकता की प्रतीति होती है। वस्तु एक है पर उसके मित्र मिन्न कालों में विरोधी धर्मों का संबंध होता है । जो विरोधी धर्म एक काल में एक वस्तु में नहीं रह सकते; वे भिन्न काल में एक वस्तु में रह सकते हैं। हरित रूप और पीत रूप परस्पर विरोधी हैं। वे एक काल में एक वस्तु में नहीं रह सकते। परंतु काल भेद से वे एक वस्तु में रह सकते हैं । आम्रवृक्ष का जो फल पूर्व काल में हरित था, वही पीछे पीत वर्णवाला हो जाता है। इसी रीति से पूर्व देश काल के साथ वस्तु का जो संबंध है वह वर्तमान देश काल के संबंध से भिन्न है। एक काल में एक वस्तु में अतीत और वर्तमान देश काल का र.बंध नहीं हो सकता । काल भेव से परस्पर विरोधी देश काल
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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