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________________ १५१ छद्मस्थ दशा में भी भगवान का अपरिमित बल सुना जाता है, अतः उस दशा में भी कवलाहार न होना चाहिए | इस विषय में विस्तार अन्य ग्रन्थों में है । विवेचना:- आहार के बिना यदि भगवान के शरीर की स्थिति हो सकती हो, तो भगवान जब कर्मों के नाश के लिए तप करते हैं. तब प्राण धारण के लिए भोजन आदि नहीं करना चाहिए। छद्मस्थ दशा में क्षायोपशमिक वीर्य होता है, और केवली दशा में क्षायिक वीर्य होता है। क्षायिक वीर्य के होने पर भी शरीर की स्थिति के लिए भगवान कभी बैठते हैं. और कभी खडे हो जाते हैं, अथवा कभी चलते हैं । शरीर की स्थिति के लिए बैठने और उठने आदि का क्षायिक वीर्य के साथ कोई विरोध नहीं है । इसी प्रकार कवलाहार का भी कोई विरोध क्षायिक वो के साथ नहीं है । जब तक भूख है, तब तक उसकी निवृत्ति के लिए आहार आवश्यक है। केवला को भूख लगती है । इसलिए वह कवलाहार करता है । भूख 'के कारण अन्य प्राणियों के समान केवली के शरीर में विद्यमान भी हैं अतः केवली में भी भूख उत्पन्न होती है । वेदनीय कर्म भूख का कारण है और केवली में विद्यमान है केवली में मोहनीय कर्म का अभाव है। भूख मोहनीय कर्म का कार्य नहीं है और न मोहनीय कर्म का स्वभाव है। अतः मोहनीय के अभाव से भूख का अभाव नहीं हो सकता । अग्नि धूम का कारण है। जहां अग्नि नहीं वहां धूम की उत्पत्ति नहीं हो सकती । मोहनीय कर्म भूख का कारण नहीं है, इसलिए उसका अभाव भूख की उत्पत्ति को नहीं रोक सकता । आम्रवृक्ष का स्वभाव बृक्षत्व और आम्रत्व है । वृक्षत्व व्यापक है और आम्रत्व
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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