SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भीत वस्त्र आदिका व्यवधान हो तो नेत्र आदि अर्थों को प्रकाशित नहीं करते। ज्ञान जिस प्रकार समीप की वस्तु को प्रकाशित करता है इस प्रकार दूर की वस्तु को भी प्रकशित करता है। एक बार ज्ञान उत्पन्न हो जाय तो फिर वह समीप और दूर, स्थूल और सूक्ष्म, वर्तमान--अतीत और अमागत को समान रूप से प्रकाशित करता है। भीत आदि प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति को रोकते हैं। परन्तु अनुमान और शब्द से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसको नहीं रोकते । कर्म इस प्रकार का आवरण है, जिसके होने पर ज्ञान समीप वस्तु को भी नहीं प्रकाशित करता। यदि कर्म का क्षयोपशम अथवा अत्यंत क्षय हो, तो देश और काल के द्वारा व्यवहित वस्त को भी प्रकाशित करता है। विशिष्ट ज्ञानियों के समान सामान्य मनुष्यों का ज्ञान स्वभाव में समान है। आवरण के कारण साधारण लोगों का ज्ञान किसी अर्थ को प्रकाशित करता है और किसी अर्थ को नहीं प्रकाशित करता । परन्तु उसकी शक्ति समस्त अर्थों के प्रकाशन में है। जो लोग कहते हैं किसी काल में किसी भी रीत से ज्ञान समस्त अर्थों को नहीं प्रकाशित कर सकता, परिमित संख्या में विषयों को प्रकाशित करना उसका स्वभाव है, उनका मत युक्त न हों है । साधारण लोगों का ज्ञान भी अस्पष्ट रूप से समस्त विषयों को प्रकाशित करता है । प्रमेयत्व और वाच्यत्व की व्याप्ति है। जहाँ जहाँ प्रमेयत्व है, वहाँ वहाँ वाच्यत्व है। सामान्य लोगों को इस व्याप्ति का ज्ञान होता है। यदि ज्ञान समस्त विषयों के प्रकाशन में सर्वथा असमर्थ हो तो इस ध्याप्ति का ज्ञान नहीं होना चाहिए। इन्द्रिय साधारण रूप से अर्थों को प्रकाशित करती हैं। प्रायः वे अर्थ अल्प संख्या में होते हैं इससे अर्थों का प्रकाशन ज्ञान का स्वभाव है यह
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy