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________________ [- केवलज्ञान का निरूपण:-] मूलमः-निखिलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारि केवलज्ञानम् । अत एवैतत्सकलप्रत्यक्षम् । तचावरणक्षयस्य हेतोरैक्याभेदरहितम् । आवरणं चात्र कर्मैव, स्वविषयेऽप्रवृत्तिमतोऽस्मदादिज्ञानस्य सावरणत्वात्, असर्व विषयत्वे व्याप्तिज्ञानाभावप्रसङ्गात्, सावरणात्वाभावेऽ. स्पष्टत्वानुपपत्तेश्च । आवरणस्य च कर्मणीविरोधिना सम्यग्दर्शनादिना विनाशात् सिड्य. ति कैवल्यम् । . अर्थ:-समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को जो प्रत्यक्ष करता है वह केवलज्ञान है । इसी कारण से वह सकल प्रत्यक्ष है। आवरणों का क्षय केवलज्ञान का कारण है । यह कारण एक है इसलिए केवलज्ञान के भेद नहीं हैं । यहाँ पर आवरण, कर्म ही है । हमारा ज्ञान विषयों में प्रवृत्ति नहीं करता इसलिए आवरण से युक्त है। ज्ञान स्वभाव से समस्त विषयों का प्रकाशक न हो तो व्याप्ति ज्ञान नहीं होना चाहिए । हमारे ज्ञान में जो आवरण न हो तो उस में अस्पष्टता न हो । विरोधी सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा का रूप
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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