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करे और मन से भिन्न रूपवाले द्रव्यों का प्रत्यक्ष न करे । इस कारण मन:पर्यवज्ञान के लक्षण की अतिव्याप्ति अवधि. ज्ञान में नहीं होती !
अनेक अन्य कारणों से भी अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में भेद हैं। विशुद्धि. क्षेत्र स्वामी और विषय, इन कारणों से इन दोनों में भेद है अवधिज्ञान को अपेक्षा मन:पर्यव ज्ञान अधिक शुद्ध है । अवधिज्ञानी जिन रूपी द्रव्यों को जानता है उन द्रव्यों की विचारणा जब मन से होती है तब मन पर्यायज्ञानी अधिक पर्यायों के साथ उन द्रव्यों को जानता है। क्षत्र के कारण भी इन दोनों ज्ञानों में भेद है। ऊँगली के यदि असंख्येत भाग किये जाय तो एक असंख्येय भाग से परिमित क्षेत्र में जितने रूपी द्रव्य है उनको जो अवधिज्ञान जानता है वह सब से न्यून है । वही बढता बढता अनेक भिन्न प्रकार के द्रव्यों को प्रत्यक्ष करता है। जब वृद्धि की चरम सीमा में होता है तब समस्त लोक में जितने रूपी द्रव्य हैं उनको प्रत्यक्ष करता है । परन्तु मनःपर्यायज्ञान अढाई द्वीप समुद्र के मानुष क्षेत्र में होता है अढाईद्वीप में भी संज्ञी पंचे. न्द्रियजीव मनोवर्गणा के जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उनको मनःपर्यायज्ञानी जानता है। शकराप्रभा आदि नरकों में मन:पर्याय जान नहीं होता। इन दोनों ज्ञानों के स्वामिभाव में भी भेद है। अवधिज्ञान विरतिवाले साधु, असंयत. और संयत असंयत को नारक आदि चार गतियों में होता है। मनःपर्यायज्ञान केवल मनुष्यों को होता है। मनुष्यों में भी केवल संयत को होता है, मिथ्यादृष्टि आदिको नहीं होता । मिथ्यादृष्टि आदि मनुष्य के समान देव आदिको भी नहीं उत्पन्न होता। विषय के कारण भी इन दोनों में भेद है ।