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________________ एकान्तवाद के कारण अन्य सम्प्रदायों के मत में वस्तु का स्वरूप यथार्थ नहीं रहा और अनेकान्तवाद के कारण जैनमत में वस्तु का स्वरूप यथार्थ रहा है। यही जैन मत की लोकोत्तरता है । अनेकान्त के स्वरूप को न समझने के कारण अनेक अन्य सम्प्रदायों के बडे बडे आचार्यों ने भी असंगत रीतिसे जैन तत्त्व ज्ञान का प्रत्याख्यान किया यह अत्यंत खेद की बात है। प्रासंगिक-- गंभीर तर्क प्रधान ग्रंथों में प्रवेश कराने के लिये सरलरूपसे वस्तु स्वरूप के प्रकाशक आरंभिक प्रयोंकी रचना सभी सम्प्रदार्यों में समान रूप से पाई जाती है । न्याय और वशे. षिक मत को लेकर तर्क संग्रह और न्याय सिद्धान्तमुक्तावली आदि की रचना हुई है। जैनों ने गंभीर तर्क में प्रवेश के लिये प्रमाणनयतत्त्वालोक-प्रमेयरत्नकोष आदिको रचना को। अर्वाचीन काल में ईसा को १७ वी शतो में कुमततिमिरभास्कर-न्यायाचार्य-न्यायविशारद महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज ने "जैन तर्क भाषा" नामसे आरभिक जिज्ञासुओं के लिये रचना की। इसमें जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार तत्त्वज्ञान के साधन प्रमाण-नय और निक्षेपों का प्रतिपादन है। परमपूज्य-महामहोपाध्याय श्री ने जिस स्वरूप को प्रकाशित किया है वह सरलतासे समझ में आ जाय इस लिये हिन्दी भाषा में टीका की रचना की गई है। प्रमाणों का जो स्वरूप जैन तत्त्वज्ञान में है वह सरलतासे प्रतीत हो जाय इस वस्तु को ध्यान में रखकर यह टीका की गई है। इस टीका में जहां शब्दों का अर्थ है वहां विवेचना
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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