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११६ विवेचना-लिपि और व्यञ्जवाक्षरों का ज्ञान अन्य के उपदेश से ही होता है । परन्तु लब्धिअक्षरश्रुत का ज्ञान जिस प्रकार अन्य के उपदेश से होता है इस प्रकार अन्य के उपदेश के बिना भी हो सकता है। संकेत को जानकर वक्ता बोलता है और श्रोता सुनता है। वक्ता और श्रोता दोनों आरंभ में अन्य के उपदेश से शब्द को वाचक और अर्थ को वाच्यरूप में जानते हैं । संकेत ज्ञान के बिना व्यवहार नहीं हो सकता। सामान्य रूप से शब्द को सुनकर अर्थ का जो ज्ञान होता है वह अन्य से संकेत का ज्ञान न हो तो भी हो सकता है । विधि पूर्वक जिन्होंने अन्यों से उपदेश प्राप्त किया इस प्रकार के मुग्ध जन अपना नाम सुनकर वक्ता की ओर देखते हैं। गौ आदि पश भी गोपाल से अपना नाम जब सुनते हैं तब उसकी ओर देखते हैं और पूंछ आदि हिलाते हैं। मुग्ध जन और गाय आदिका यह ज्ञान लब्धिअक्षरश्रुत
रूप है। असंजि जीवों में आहार आदिको प्रतीति होती है - इस कारण एकेन्द्रिय आदि में स्वाभाविक चैतन्य जिस ... प्रकार सिद्ध होता है इस प्रकार लब्धि अक्षर रूप सामान्य
जान भी युक्ति से सिद्ध होता है। क्षयोपशम आदि के कारण लब्धिअक्षररूप ज्ञान होता है। एकेन्द्रिय आदि असंज्ञि जीवों में क्षयोपशम आदि निमित्त हैं। इसलिए इनमें लब्धि अक्षर रूप ज्ञान हो सकता है। मूलम्-अनक्षरश्र तमुच्छ्वासादि, तस्यापि भावश्रुतहेतुत्वात्, ततोऽपि 'सशोकोऽयम्' इत्यादि. ज्ञानाविर्भावात् । अथवा श्रुतोपयुक्तस्य सर्वास्मनैवोपयोगात् सर्वस्यैव व्यापारस्य श्रुतरूपस्वेऽपि अत्रैव शास्त्रज्ञलोकप्रसिद्धा रूहिः ।