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________________ ये मेद अपने विरोधियों के साथ मिलकर चौदह प्रकार के हो जाते हैं। वे इस प्रकार-(१) अक्षरश्रुत (२) अनक्षरश्रुत (३) संज्ञिश्रुत (४) असंज्ञिश्रुत (५) सम्यक् श्रुत (६) मिथ्याश्रुत (७) सादिश्रुत (८) अनादिश्रुत (९) सपर्यवसितश्रुत (१०) अपर्यवसितश्रुत (११) गमिकश्रुत १२ अगमिकश्रुत (१३) अङ्गप्रविष्टश्रुत (१४) अनङ्गप्रविष्टश्रुत । मूलम्-तत्राक्षरं त्रिविधम्-सज्ञा-व्यञ्जनलन्धिभेदात् । सब्ज्ञाक्षरं बहुविधलिपिभेदम, न्यजनाक्षरं भाष्यमाणमकारादि-एते चोपचाराच्छ ते। ___ अर्थ-(१) इन में अक्षरश्रुत तीन प्रकार का है (१) संज्ञा अक्षर (२) व्यञ्जन अक्षर और (३) लब्धि असर । लिपि का अक्षर संज्ञा अक्षर है। लिपियाँ अनेक प्रकार की हैं इसलिए संज्ञाक्षर अनेक प्रकार का है । वक्ता जिनका उच्चारण करता है, वे अकारादि व्यन्जन अक्षर हैं ये दोनों अक्षर उपचार से श्रुत हैं। विवेचना-शब्दों को सुनकर अर्थ का जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। लिपि अक्षर और व्यञ्जनाक्षर ज्ञानमय नहीं है, इसलिए वे मुख्य रूप से श्रुत नहीं हैं। परन्तु लिपि को देखकर और शब्द को सुनकर पद और वाक्य का ज्ञान
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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