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में कोई भेद नहीं है । केवल व्यतिरेक से अथवा केवल अन्वय से अथवा अन्वय और व्यतिरेक दोनों से उत्पन्न निश्चय का स्वरूप एक ही है । उसके स्वरूप में भेद की प्रतीति नहीं होती । अभाव के द्वारा अवधारण अपाय है और भाव के द्वारा अवधारण धारणा है इस रीति से यदि अपाय का भेद हो तो मतिज्ञान के पाँच भेद होने चाहियें । अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा ये चार भेद आपके अनुसार हैं ही। यह स्थाणु है इस प्रकार के निश्चय की निरंतर स्थिति अविच्युति है। जो स्थित रहता है वह अपाय है इसलिए अविच्युति का अन्तर्भाव हो सकेगा । वासना अर्थात् संस्कार स्मृति का कारण है इसलिए उसका अन्तर्भाव स्मृति में कहा जा सकेगा, परन्तु स्मृति का अन्तर्भाव आपके अभिमत अपाय अथवा धारणा में नहीं हो सकेगा। यह स्थाणु है इस प्रकार का स्वरूप आपके मत के अनुसार अपाय और धारणा दोनों का है परन्तु स्मृति का स्वरूप 'यह' इस आकार में है । यह और वह के आकारों में भेद स्पष्ट है । इस रीति से स्मृति का अन्तर्भाव न होने के कारण मतिज्ञान के पांच भेदों के होने की आपत्ति हो जायगी ।
मूलम् - अथ नास्त्येव भवदभिमता धारणेति भेदचतुष्टया (य) व्याघातः, तथाहि उपयोगोपरमे का नाम धारणा ! उपयोगसातत्यलक्षणा अविच्युतिश्चापायान्नातिरिच्यते । या च घटाद्युपयं गोपर मे सङ्घयेयमसङ्ख्येयं वा कालं वासनाऽभ्युपगम्यते, या च 'तदेव' इति लक्षणा स्मृतिः सा मध्यंशरूपा धारणा न भवति मत्युपयोग