SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४ में संग्रह होता है, इस लिये मति ज्ञान का पहले जो विभाग कहा गया है उस का विरोध नहीं है । विवेचना - अवग्रह आदि के रूप में मति ज्ञान के चार भेदों का प्रतिपादन पहले हो गया है । अब जिन भेडों का प्रतिपादन हुआ है उनके अनुसार व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह ईहा, उपाय, अविच्युति, स्मृति और वासना के भेद से सात प्रकार का विभाग होता है । यहाँ जो परस्पर विरोध होता है वह वास्तव में विरोध नहीं है । व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह अवग्रह रूप में एक हैं । अविच्युति स्मृति और वासना ये तीन धारणा रूप में एक हैं । मूलम् - केचित् अपनयनमपायः, धरणं च धारणेति व्युत्पत्यर्थमात्रानुसारिणः- “असद्रुतार्थविशेषव्यतिरेकावधारणमपायः, सद्भूतार्थविशेषावधारणं च धारगा" इत्याहु अर्थ - कुछ लोग व्युत्पत्ति से जो अर्थ प्रतीत होता उसके अनुसार निषेध को अपाय और धारणा को धारणा कहते हैं । अपनयनम् = अपायः, धरणं - धारणा, यह व्युत्पत्ति है । वस्तु में जो धर्म नहीं है उनके अभाष का निश्चय अपाय है । सामने जो अर्थ विद्यमान है उसका निश्चय धारणा है । विवेचना सामने जो स्थाणु हो तो वहाँ पुरुष नहीं है। शिर और हाथ आदि का हिलना पुरुष का विशेष धर्म है । इन विशेष धर्मों के अभाव का निश्चय अपाय है । व्युत्पत्ति के
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy