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________________ ८८ संगति है । इसी कारण पीछे पीछे के काल में ज्ञान संतति रूप व्यवहार होता है । धारावाही रूप ज्ञानों की प्रवृत्ति ही ज्ञान सन्तान है। विवेचना-निश्चय से जो अर्थावग्रह प्रथम काल में होता है उसमें शब्द आदि वस्तु का ज्ञान अव्यक्त सामान्य रूप से होता है । उसमें शब्द का स्वरूप रूप आदि से भिन्न नहीं प्रतीत होता। पीछे उसमें ईहा होती है । जो ज्ञान मुझे हुआ है वह कान से हुआ है इसलिये प्रायः वह शब्द होना चाहिये, इस ईहा के अनन्तर यह शब्द ही इस प्रकार का निश्चय रूप अपाय होता है। उसके अनन्तर काल में यह शब्द शंख का है अथवा धनुष का है इत्यादि रूप से शब्द के अवान्तर भेद के विषय में ईहा होती है उसके उत्तर काल में यह शंख का ही शब्द है इत्यादि रूप से अपाय होता है । इस ईहा और अपाय की अपेक्षा से यह शब्द ही है इस प्रकार का निश्चय अर्थावग्रह रूप में कहा गया है। अपाय में अर्थावग्रह का व्यवहार उपचार से है। शंख शब्द अथवा वीणा शब्द के रूप में ज्ञान भावी है इसकी अपेक्षा पूर्ववर्ती यह शब्द है इस प्रकार का ज्ञान शब्दरूप सामान्य के विषय में है इसी रीति से उत्तरोत्तर काल के विशेषों को अपेक्षा से पूर्व पूर्व काल का विशेष सामान्य होता है। जिसके अनन्तर ईहा और अपाय हों और जो सामान्य का प्रकाशक हो वह अर्थावग्रह है। रूप आदि से भिन्न रूप में बिना जाने शब्द का अव्यक्त रूप से ज्ञान नैश्चयिक अर्थावग्रह है। उसके पीछे ईहा और अपाय की प्रवृत्ति होती है। इस रीति से नैश्चयिक अर्थावग्रह को अपेक्षा यह शब्द ही है इत्यादि निश्चय अपाय है। शम्न
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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