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________________ का ज्ञान है पर वह विशेष अल्प है इसलिये यह ज्ञान अवग्रह है अपाय नहीं, तब कौन ज्ञान अपाय है ? इसका निर्देश करना चाहिये । यह शंख का शब्द है यह वीणा का शब्द है इत्यादि प्रकार का ज्ञान शब्द के अवान्तर भेदों का ज्ञान है। अनेक विशेषों का प्रकाशक होने से वह अपाय है । अल्प विशेषों का ज्ञान जो अपाय न हो और अर्थावग्रह रूप हो तो अपाय ज्ञान का स्वरूप नियत नहीं हो सकेगा। उत्तर काल के ज्ञानों की अपेक्षा पूर्ववर्ती ज्ञानों में विशेषों की प्रतीति अल्प होती है । इस रीति से विशेषग्राही ज्ञान भी उत्तरकाल के ज्ञानों की अपेक्षा से अल्प विशेषों का प्रकाशक होने के कारण विशेषरूप न हो सकेंगे। मूलम्-किञ्च, 'शब्दोऽयम्' इति ज्ञान (नं) शब्दगतान्वयधर्मेषु रूपादिव्यावृत्तिपर्यालोचनरूपामीहां विनाऽनुपपन्नम् , सा च नागृहोतेऽर्थे सम्भवतीति तद्ग्रहणं अस्मदभ्युपगतार्थावग्रह. कालात् प्राक् प्रतिपत्तव्यम् , स च व्यञ्जनावग्रहकालोऽर्थपरिशून्य इति यत्किञ्चिदेतत् । अर्थ-इस पक्ष में अन्य दोष भी है । शब्दगत अन्वयी धर्मों में रूप रस आदि की व्यावृत्ति की आलोचना रूप ईहा बिना "यह शब्द है" इस प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता और ईहा अज्ञात पदार्थ में नहीं होती । इस कारण हमने अर्थावग्रह का जो काल माना है उससे पूर्व काल में अर्थ का ज्ञान मानना पडेगा ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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