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________________ :५६ स्वप्न की प्रतीति अमत्य है उसके कारण शरीर को छोडकर बाहर मेरु के उपर मन का गमन सिद्ध नहीं होता। पूर्व काल में जो ज्ञान उत्पन्न होता है उस ज्ञान के विषय में ही यदि पीछे के काल में विरोधी ज्ञान उत्पन्न हो, तो उन दोनों ज्ञानों में अवश्य एक सत्य और दूसरा मिथ्या होता है। अन्य प्रमाण भूत ज्ञान जिस ज्ञान की सहायता करने हैं वह सत्य और दूसरा मिथ्या सिद्ध होता है । मन्द प्रकाश आदि के कारण रज्जू सर्प रूप में प्रतीत होती है। तीव्र प्रकाश के होने के पीछे वही रज्जु, रज्जु के रूप में प्रतीत होती है और सर्प भ्रम की निवृत्ति हो जाती है और जब मनुष्य उसके पास जाता है तब काटने के लिये अथवा भागने के लिये उसकी प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती। इन समस्त प्रमाणों से रज्जु ज्ञान सत्य सिद्ध होता है। सुप्त मनुष्य का शरीर के साथ मेरू के उपर जाने का ज्ञान भ्रान्त है । पास में रहने वाले लोग उसके शरीर को सामने देखते हैं और जागने के अनन्तर सोया हुआ मनुष्य भी अपने शरीर को निद्रा के स्थान में देखता है । पुष्पों की सुगन्ध से उत्पन्न सुख और मार्ग में चलने से उत्पन्न थकावट का अनुभव उसको नहीं होता । इन समस्त प्रमाणों से सुप्त मनुष्य का मेरू पर गमन असत्य सिद्ध होता है । मूलम्-ननु स्वप्नानुभूतजिनस्नात्रदर्शनसमीहितार्थालाभयोरनुग्रहोपघातौ विबुध(ड)स्य सतो दृश्यते एवेति चेत् , अर्थ-स्वप्न में भगवान् जिनेन्द्र के अभिषेक को देखने से और इष्ट अर्थ की अप्राप्ति के अनुभव से उत्पन्न
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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