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________________ मर्थावग्रह आदि ज्ञान व्यक्त रूप वाले हैं और व्यंजनावग्रह भत्यन्त सूक्ष्म होने से अव्यक्त स्वभाववाला है। [व्यंजनावग्रह के चार भेद और मन और चाकी अप्राप्यकारिता।] मलम्-सच नयन-मनोवर्जेन्द्रियभेदाचतुर्धा, नयन--मनसोरप्राप्यकारित्वेन व्यजनावग्रहा. सिडः, अन्यथा तयोर्जेयकृतानुग्रहोपघातपात्रस्वे जलानलदर्शन-चिन्तनयोः क्लेददाहापत्तेः। ___ अर्थ-चक्षु और मन को छोड कर शेष चार इन्द्रियों से उत्पन्न होता है इसलिये व्यंजनावग्रह चार प्रकार का है । चक्षु और मन अप्राप्यकारी है इसलिये उनका व्यंजनावग्रह होता नहीं। यदि ये दोनों प्राप्यकारी हों तो इन दोनों से जिन पदार्थों का ज्ञान होता है उन पदार्थों से उत्पन्न उपकार और उपघात का पात्र इन दोनों इन्द्रियों को होना चाहिये । यदि यह अवस्था हो तो पानी को देखने से नेत्रों को गीला होना चाहिये और अग्नि के देखने से नेत्र में दाह होना चाहिये । इसी रीति से जल की चिन्ता के करने पर मन को गीला होना चाहिये और अम्नि की चिन्ता से मन को जलना चाहिये । विवेचन.-विषय के साथ संयुक्त होकर ज्ञान रूप कार्य को उत्पन्न करना प्राप्यकारित्व है। कर्णादि इन्द्रिय प्राप्य
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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