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समर्पण
इस विराट विश्व में इधर-उधर भटकते हुए एक युवक का जिन्होने असीम करुणा कर के उद्धार किया
जिनके प्रशान्तस्वभाव- करुणापूर्णमन - गुरुसमर्पितभाव स्वाध्यायमग्नता- अप्रमत्तता आदि अनेक गुणों को आज भी कई लोग प्रतिदिन याद करते हैं
जिनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से ही इस ग्रन्थ के विवेचन संपा दन और मुद्रण आदि कार्य संपन्न हो सके हैं:
उन गुरुवर पू. आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय जितविरजी के चरणों में
अपना यह प्रथम संपादित ग्रंथ भक्तिभाव से समर्पित करता हूँ सदा के लिये गुरुकृपाकांक्षी विनम्र शिशु - मुनि रत्नभूषण विजय