SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० ] पञ्चाध्यायी । [ दूसरा है। वहां पर जो उसे इष्ट प्रतीत होता है उसीसे वह रुचि भी करता है । फिर उसकी अभिलाषायें शान्त हो चुकी हैं, ऐसा किस प्रकार कह सक्ते हैं ? उत्तर- सत्यमेतादृशो यावज्जघन्यं पदमाश्रितः । चारित्रावरणं कर्म जघन्यपदकारणम् ॥ २६७ ॥ अर्थ – आचार्य कहते हैं कि यह बात ठीक है कि जब तक सम्यग्दृष्टी जघन्य श्रेणी (नीचे दरजे) में है, तब तक वह पदार्थोंमें इष्टानिष्ट बुद्धि करता है तथा उनसे रुचि भी करता है । उस जघन्य श्रेणीका कारण भी चारित्र मोहनीय कर्म है । भावार्थ — अन्तरात्मा के तीन भेद शास्त्रकारोंने बतलाये हैं- जो महाव्रतको धारण करनेवाले मुनि हैं वे तो उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं, देशव्रतको धारण करनेवाले पञ्चम गुणस्थान वर्ती जो श्रावक हैं वे मध्यम - अन्तरात्मा हैं, और जो व्रत विहीन (अत्रती ) केवल सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टी पुरुष हैं वे जघन्य - अन्तरात्मा हैं । इस जघन्यता में कारण चारित्र मोहनीयका प्रबल उदय है । उसीकी प्रबलतासे प्रेरित होकर वे विषयों में रुचि करते हैं और त्रस, स्थावर हिंसाके भी त्यागी नहीं हैं । इतना अवश्य है कि वे विषयोंकी निःसारताको अच्छी तरह समझे हुए हैं इसी लिये उनमें उनकी मिथ्यादृष्टियों की तरह गाढ़ता और हित रूपा बुद्धि नहीं होती है परन्तु सब कुछ ज्ञान रहने पर भी अनत सम्यग्दृष्टी पुरुष त्याग नहीं कर सक्ते । त्याग रूपा उनकी बुद्धि तभी हो सक्ती है जब कि चारित्र मोहनीयका उदय कुछ मन्द हो और वह मन्दता भी तभी आसक्ती है जब कि अप्रत्याख्यानवरण कषायका उपशम होकर प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय हो । विना अप्रत्याख्यानावरण कषायके उपशम हुए नियमसे नहीं कहा जा सक्ता है, जहां नियमसे त्याग है उसीका नाम देशव्रत है । इस लिये पञ्चम गुणस्थानवर्तीको ही एक देश त्यागी कह सक्ते हैं । सम्यग्दृष्टि पुरुष सभी पदार्थों में आसक्त रहने पर भी एक सम्यग्दर्शन गुणके कारण ही सदा स्तुत्य और निर्मल है । उसीका बाह्यरूप-जिनोक्त पदार्थों में उसका अटल विश्वास है । + + अत्रत सम्यग्दृष्टीका स्वरूप गोम्मटसारमें भी इसी प्रकार है गाथा - णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी भविरदो सो ॥ ३॥ अर्थ- जो इन्द्रियोंके विषयोंसे भी विरक्त नहीं है । और स्थावर अथवा त्रस जीवोंकी हिंसासे भी विरक्त नहीं है परन्तु जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए पदार्थों में श्रद्धान करता है अविरत (चतुर्थ गुणस्थान वर्ती) सम्यग्दृष्टी है ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy