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________________ avAnnow y ound ७४ ] पश्चाध्यायी। चतुर्गतिभवावर्ते नित्यं कमैकहेतुके। न पदस्थो जनः कश्चित् किन्तु कर्मपदस्थितः ।। २४१ ॥ अर्थ-सदा कर्मके ही निमित्तसे होनेवाले इस चतुर्गति संसाररूप चक्रमें घूमता हुआ कोई भी जीव स्वस्वरूपमें स्थित नहीं है, किन्तु कर्म स्वरूपमें स्थित है, अर्थात् कर्माधीन है। स्वस्वरूपाच्च्युतो जीवः स्यादलब्धस्वरूपवान् । . नानादुःखसमाकीर्ण संसारे पर्यटन्निति ॥ २४२ ॥ अर्थ-यह जीव अनेक दुःखोंसे भरे हुए संसारमें घूमता हुआ अपने स्वरूपसे गिर गया है । इसने अपना स्वरूप नहीं पाया है। शङ्काकारननु किञ्चिच्छुभं कर्म किच्चित्कर्माशुभं ततः। कचित्सुखं कचिहुःखं तत्किं दुःखं परं नृणाम् ॥२४॥ अर्थ-शङ्ककार कहता है कि कोई कर्म शुभ होता है और कोई कर्म अशुभ होता है । इसलिये कहीं पर सुख और कहीं पर दुःख होना चाहिये, केवल मनुष्योंको दुःस ही क्यों बतलाते हो ? उत्तर नैवं यतः सुखं नैतत् तत्सुखं यत्र नाऽसुखम् । स धर्मो यत्र नाधर्मस्तच्छुभं यत्र नाऽशुभम् ॥२४४॥ अर्थ-शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है। क्योंकि जिसको वह सुख समझता है वह सुख नहीं है। वास्तवमें सुख वही है जहां पर कभी थोड़ा भी दुःख नहीं है, वही धर्म है जहां पर अधर्मका लेश नहीं है और वही शुभ है जहां पर अशुभ नहीं है। सांसारिक सुखका स्वरूपइदमस्ति पराधीनं सुखं वाधापुरस्सरम् । व्युच्छिन्नं बन्धहेतुश्च विषमं दुःखमर्थतः ॥२४॥ अर्थ-यह इन्द्रियोंसे होनेवाला सुख पराधीन है, कर्मके परतन्त्र है, बाधापूर्वक है, इसमें अनेक विघ्न आते हैं, बीचबीचमें इसमें दुःख होता जाता है, यह सुख बन्धका कारण है, तथा विषम है । वास्तवमें इन्द्रियोंसे होनेवाला सुख दुःख रूप ही है इसी बातको दूसरे ग्रन्थकार भी कहते हैं ग्रन्थान्तर * सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । ... जं ईदिएहि लडं तं सुक्खं दुःखमेव तहा ॥१॥ * यह गाथा पञ्चाध्यायीमें ही क्षेपक रूपसे दी हुई है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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