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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा
उसीका खुलासा-- अज्ज्ञाने गुणः सम्यक् प्राप्तावस्थान्तरं यदा
आत्मोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना ॥ १९७ ॥ ...
मर्थ-अर्थात् मिस समय आत्माका ज्ञानगुण सम्यक् अवस्थाको प्राप्त हो जाता है, केवल शुद्धात्माका अनुभवन करता है उसी समय उसे ज्ञान चेतना कहते हैं।
ज्ञानचेतनाका स्वामीसा ज्ञानचेतना मूनमस्ति सम्यग्दृगात्मनः। न स्यान्मिथ्यादृशः कापि तदात्वे तदसम्भवात्ः ॥ १९८॥
अर्थ-वह ज्ञानचेतना निश्चयसे सम्यग्दृष्टिके ही होती है। मिथ्यादृष्टिके कहीं भी नहीं हो सक्ती, क्योंकि मिथ्यादर्शनके होनेपर उसका होना असंभव ही है।
भावार्थ-सम्यग्दर्शनके होनेपर ही मतिज्ञानावरणीयकर्मका विशेष क्षयोपशम होता है उसीका नाम ज्ञानचेतना है। मिथ्यादर्शनकी सत्ता रहते हुए उसका होना सर्वथा असंभव है।
मिथ्यादर्शनका माहात्म्यअस्ति चैकादशाङ्गानां ज्ञानं मिथ्यादृशोपि यत् ।
नात्मोपलब्धिरस्यास्ति मिथ्याकर्मोदयात्परम् ॥ १९९ ।।
अर्थ-मिथ्यादृष्टिको ग्यारह अंग तकका ज्ञान हो जाता है, परन्तु आत्माका शुद्ध अनुभव उसको नहीं होता है यह केवल मिथ्यादर्शनके उदयका ही महात्म्य है।
भावार्थ-द्रव्यलिंग धारण करनेवाले मुनि यद्यपि ग्यारह अंग तक पढ़ जाते हैं परन्तु मिथ्यात्व पटलके उदय होनेसे वे शुद्धात्माका स्वाद नहीं ले सक्ते । आश्चर्य है कि उनके पढ़ाये हुए शिष्य भी जिनका कि मिथ्यात्वकर्म दूर हो गया है, शुद्धात्माका आनन्द ले लेते हैं परन्तु वे नहीं ले सक्ते।
शंकाकार--
ननूपलब्धिशब्दन ज्ञानं प्रत्यक्षमर्थतः ।
तत् किं ज्ञानावृतेः स्वीयकर्मणोन्यत्र तत्क्षतिः ॥ २०० ॥
अर्थ-शङ्काकार कहता है कि आत्माकी उपलब्धि सम्यग्दृष्टिको होती है, यहांपर 'उपलब्धि' शब्दसे प्रत्यक्ष ज्ञान लेते हैं अर्थात् आत्माका प्रत्यक्ष होता है । यह अर्थ हुआ तो क्या आत्मीय ज्ञानावरण कर्मका वहां क्षय हो जाता है ?
उत्तरसत्यं स्वावरणस्योचैर्मूलं हेतुर्यथोदयः । कर्मान्तरोदयापेक्षो नासिद्धः कार्यकृद्यथा ॥ २०१॥