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________________ पञ्चाध्यायी। [ दूसरा - जीव शुद्ध भी है और अशुद्ध भी हैजीवः शुद्धनयादेशादस्ति शुद्धोपि तत्त्वतः ।, नासिद्धश्चाप्यशुद्धोपि बडाबडनयादिह ॥ १३३ ॥ अर्थ-शुद्धनय ( निश्चयनय ) से जीव वास्तवमें शुद्ध है परन्तु व्यवहार नयसे जीव अशुद्ध भी है। व्यवहारमें यह जीव कर्मोसे बंधा हुआ भी है और मुक्त भी होता है इसलिये इसकी अशुद्धता भी अमिद्ध नहीं है। निश्चय नय और व्यवहार नयमें भेदएकः शुद्धनयः सर्वो निईन्छो निर्विकल्पकः। व्यवहारनयोऽनेकः सद्वन्द्वः सविकल्पकः ॥ १३४ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण शुद्धनय एक है वह निर्द्वन्द्व है, उसमें किसी प्रकारका भेद नहीं है, वह निर्विकल्प है अर्थात् यह शुद्धनय न तो किसी दूसरे पदार्थसे मिश्रित ही है और न इसमें किसी प्रकार भेदकल्पना है इसीलिये इसका स्वरूप वचनातीत है । क्योंकि वचनोंद्वारा जितना स्वरूप कहा जायगा वह सब खण्डशः होगा, इसलिये वह कथन शुद्ध नयसे गिर जाता है । परन्तु व्यवहार नय शुद्ध नयसे प्रतिकूल है । वह अनेक है, उसमें दूसरे पदार्थोका मिश्रण है, उसके अनेक भेद हैं, वह सविकल्प है । इस नयके द्वारा वस्तुका असली रूप नहीं कहा जा सक्ता । यह नय वस्तुको खण्डशः प्रतिपादन करता है और इस नयसे वस्तुके शुद्धांशका कथन नहीं होता। शुद्ध और व्यवहारसे जीवस्वरूपवाच्यः शुद्धनयस्यास्य शुद्धो जीवश्चिदात्मकः। शुद्धादन्यत्र जीवाद्याः पदार्थास्ते नव स्मृताः ॥ १३५ ॥ अर्थ-शुद्ध नयकी अपेक्षासे जीव सदा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, इस नयसे जीव सदा एक और अखण्ड द्रव्य है, परन्तु व्यवहार नयसे जीव अनेक स्वरूप है । व्यवहार नयकी अपेक्षासे ही जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, सँवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ कहलाते हैं। भावार्थ-ये नौ पदार्थ भी जीवकी ही अशुद्ध अवस्थाके भेद हैं । अशुद्ध जीव ही नौ अवस्थाओंको धारण करता है इसी लिये व्यवहार नयसे नौ पदार्थ कहे गये हैं। . शङ्काकारननु शुद्धनयः साक्षादस्तिसम्यक्त्वगोचरः। एको वाच्यः किमन्येन व्यवहारनयेन चेत् ॥१३६ ॥ .. अर्थ- सम्यक्त्वगोचर एक शुद्ध नय ही है । इस लिये उसीका कथन करना चाहिये, बाकी व्यवहार नयसे क्या लाभ है ?
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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