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________________ maaracan अध्याय । सुबोधिनी टीका। बन्धकै कारणपर विचारतद्गुणाकारसंक्रान्ति र्भावो वैभाषिकश्चितः । सनिमित्तं च तत्कर्म तथा सामर्थ्यकारणम् ॥ १०५॥ अर्थ-जीवके गुणोंका अपने स्वरूपसे बदलकर दूसरे रूपमें आ जाना, इसीका नाम वैभाविक भाव है। यही नीवका भाव कर्मके बन्ध करनेमें कारण है, और वैभाविक भावके निमित्तसे होनेवाला वही कर्म उसी वैभाविक भाव पैदा करनेकी सामर्थ्यका कारण है। भावार्थ-कर्मोके निमित्तसे होनेवाली रागद्वेष रूप आत्मीकी अवस्थाका नाम ही वैभाविक है । वही अशुद्धभाव पुद्गलोंको कर्मरूप बनाने में कारण है, और वहं कर्म भी उस वैभाविक भावकी उत्पत्तिका कारण है इसलिये इन दोनोंमें परस्पर कारणता है। इसी बातको नीचे स्पष्ट करते हैं' अर्थाय यस्य कार्य तत् कर्मणस्तस्य कारणम् । एको भावश्च कमैकं बन्धोयं द्वन्दजः स्मृतः॥१०६ ॥ अर्थ-उपर्युक्त कथनका यही आशय है कि जिस कर्मका यह वैभाविक भाव कार्य है, उसी कर्मका कारण भी है। इसलिये एक तो भाव और एक कर्म इन दोनोंसे ही उभय बन्ध होता है। भावार्थ-यहांपर यह शङ्का उपस्थित हो सक्ती है कि एक ही कर्मका वैभाविक भाव कार्य है और उसी एक कर्मका कारण भी है । उसीका कार्य और उसीका कारण यह बात एक अनबनसी प्रतीत होती है । परन्तु सजातीयताको ध्यानमें रखनेसे यह शङ्का सर्वथा निर्मूल हो जाती है। वैभाविक भावको जिस कर्मने पैदा किया है उसी कर्मका कारण वैभाविक भाव नहीं है किन्तु नवीन कर्मके लिये वह कारण है । अर्थात् वैभाविक भावसे नवीन कर्म बंधते हैं और उन कर्मोसे नवीन २ भाव पैदा होते हैं। सजातीयकी अपेक्षासे ही “उसी कर्मका कारण उसीका कार्य " ऐसा कहा गया है । यदि कोई दूसरे सजातीय कमको भी कर्मत्व धर्मकी अपेक्षासे एक ही कर्म समझकर शङ्का उठावे कि कर्मही स्वयं कार्य और कमही स्वयं कारण कैसे हो सकता है ? इस शाका उत्तर भी एक ही पदार्थमें कार्य कारण भाव दिखाने वाले दृष्टान्त द्वारा स्फुट करते हैं तथाऽऽदर्श यथा चक्षुः स्वरूपं संदधपुनः । स्वाफाराकारसंक्रान्त कार्य हेतुः स्वयं च तत् ॥१०७॥ अर्थ-जिस प्रकार दर्पणमें सुख देखनेसे चलुका प्रतिबिम्ब दर्पणमें पड़ता है। उस
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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