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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका । अस्तु वैभाविकी शक्तिः संयोगात्पारिणामिकी। कर्मणामुदयाभावे न स्यात्सा पारिणामिकी ॥ ८६ ॥ दण्डयोगाद्यथा चक्रं बम्भ्रमत्यात्मनात्मनि । दण्डयोगादिना चक्रं चित्रं वा व्यवतिष्ठते ॥ ८७॥ अर्थ-शङ्काकार कहता है कि ऊपरके कथनसे यह बात सिद्ध होती है कि एक वैभाविकी नामा शक्ति है, उसी एक शक्तिकी दो प्रकारकी अवस्थायें होती हैं, एक स्वाभाविक अवस्था, दूसरी वैभाविक अवस्था । यदि ऐसा ही है अर्थात् पदार्थमें स्वभाव-विभाव दोनों प्रकारके परिणमन होते हैं तो फिर पदार्थमें दो शक्तियां ही क्यों न मान ली जावें, इसमें पदार्थोकी क्या हानि होती है ? एक शक्ति मानकर उसकी दो अवस्थायें माननेकी अपेक्षा दो स्वतन्त्र शक्तियां मान लेना ही ठीक है । आत्माके स्वाभाविक भावोंसे होनेवाली स्वाभाविकी शक्ति और आत्माके वैभाविक भावोंसे होनेवाली वैभाविकी शक्ति । इस प्रकार दोनों सिद्ध होती हैं। चाहे आत्मामें कर्मोका सम्बन्ध हो चाहे न हो आत्माके शुद्ध भावोंमें परिणमन करनेवाली स्वाभाविकी शक्ति सदा रहती है । वह शक्ति उन्हीं आत्माके अंशोंमें काम करती है जो शुद्ध हैं। तथा कर्मोका जब तक आत्मासे सम्बन्ध रहेगा तबतक वैभाविक शक्तिका परिणमन होता रहेगा, जब कर्मोका उदय न रहेगा अर्थात् जब कर्म शान्त हो जायगे उस समय उस वैभाविक शक्तिका परिणमन भी नहीं होगा, उस समय वह बेकार ही पड़ी रहेगी। दृष्टान्त-कुम्हारके चाकको जब तक दण्डका निमित्त रहता है तब तक वह चाक अपने आप घूमता है, परन्तु जब दण्डका सम्बन्ध नहीं रहता तब वह चाक भित्तिमें बनाये हुए चित्रकी तरह अपने स्थानमें ही ठहरा रहता है। भावार्थ-शङ्काकारका अभिप्राय इतना ही है कि आत्मामें एक स्वाभाविक शक्ति और एक वैभाविक शक्ति ऐसी दो शक्तियां स्वतन्त्र मानो । ये दोनों शक्तियां नित्य हैं, परन्तु आत्माके स्वाभाविक गुणोंमें स्वाभाविकी शक्तिका परिणमन होता रहता है । कौके निमित्तसे जब आत्माके गुणोंका वैभाविक स्वरूप हो जाता है तब वैभाविक शक्तिका परिणमन होता रहता है । परन्तु कर्मोके दूर होनेपर या अनुदय होनेपर वैभाविक शक्तिका परिणमन नहीं होता है। शङ्काकार दो शक्तियां मानकर उन्हें नित्य मानता है तथापि उनमें परिणमन वह सदा नहीं मानता। उसके सिद्धान्तानुसार अब दो शङ्कायें हो गई । एक तो एक शक्तिके स्थानमें दो शक्तियां स्वीकार करना । दूसरे शक्तियोंको नित्य मानते हुए भी उनमें सदा परिणमन नहीं मानना । इन्हीं दोनों शकाओंका परिहार नीचे किया जाता है 3. ५
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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