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अव्याय।
सुबोधिनी टीका। भावार्थ-वैभाविक शक्तिका अपने स्वरूपको लिये हुए प्रगटपना शुद्ध अवस्थामें होता है । वह उक्त शक्तिका स्वभाव परिणमन कहलाता है। यह स्वभाव परिणमन बन्धका कारण नहीं है किन्तु दूसरा ही है । उसे ही बतलाते हैं।
तस्मात्त तुसामग्री सान्निध्ये तद्गुणाकृतिः। स्वाकारस्य परायत्ता तया बडोऽपराधवान् ॥ ७६ ॥
अर्थ-इसलिये बन्धका कारण कलाप मिलनेपर यह स्वयं अपराधी आत्मा परतंत्र होता हुआ बँध जाता है उसी समय आत्माके निज गुणोंका स्वरूप अपनी अवस्थाको छोड़कर विभाव ( विकार ) अवस्थामें आ जाता है।
___ आत्माकी पराधीनता भी असिद्ध नहीं हैनासिद्धं तत्परायत्तं सिद्धसंदृष्टितो यथा । - शीतमुष्णमिवात्मानं कुर्वन्नात्माप्यनात्मवित् ॥ ७७॥ .
अर्थ संसारी आत्मा कर्मोके परतन्त्र है यह बात भी असिद्ध नहीं है। प्रसिद्ध दृष्टान्तसे यह बात सिद्ध है। जिस समय यह आत्मा ठण्ड या गरमीका अनुभव करने लगता है उस समय यह मूर्ख आत्मा अपनी आत्माको ही ठण्ड या गरम समझने लगता है। यह मूर्खता इसकी कर्मोकी परतन्त्रतासे ही होती है।
शीत और उष्ण क्या है ? तद्यथा मूर्तद्रव्यस्य शीतश्चोष्णो गुणोखिलः।
आत्मनश्चाप्यमूर्तस्य शीतोष्णानुभव: क्वचित् ॥ ७८ ॥
अर्थ-शीत और उष्ण दोनों मूर्तद्रव्य ( पुद्गल )के + गुण हैं। इन गुणोंका x कहीं २ अमूर्त आत्मामें भी अनुभव होता है। . भावार्थ-आत्मा यद्यपि अमूर्त है उसके न शीत है और न उष्ण है तथापि कर्मकी परतन्त्रतासे यह आत्मा अपने आपको ही ठण्डा और गरम मानता है।
शंकाकारननु वैभाविकी शक्तिस्तथा स्यादन्ययोगतः।
परयोगाद्विना किं न स्याद्वास्ति तथान्यथा ॥ ७९ ॥
अर्थ-क्या वैभाविक शक्तिका विभाव रूप परिणमन दूसरेके निमित्तसे ही होता है ? दूसरेके विना निमित्तके नहीं ही होता ? अथवा वैभाविक शक्ति वास्तवमें है या नहीं है ?
+ स्पर्शगुणकी पर्याय । - संसारी आत्मामें ।