________________
श्री अर्हद्भयो नमः।
1010CROIDuDARDROM
00
0000
SSIST DOSD000
LOROMOEBOE MOHOROOM ONOLONDO
ICISOBON
DODIR BDOO
00
TOBOHOROMOTIO
ॐ ह पञ्चाध्यायी ग्रन्थ जैन सिद्धान्तके उच्चतम कोटिके ग्रन्थोंमेंसे एक अद्वितीय witam ग्रन्थ है। वर्तमान समयके विद्वान् तो इस ग्रन्थको असाधारण और गम्भीर समझते ही हैं, किन्तु ग्रन्थकर्त्ताने स्वयं इसे ग्रन्थराज कहते हुए इसके बमानेकी प्रतिज्ञा की है । जैसा कि “पश्चाध्यायावयवं मम कर्तुग्रन्थराजमात्मवशात्" इस आदि श्लोकाईसे प्रकट होता है।
इस ग्रन्थमें जिन महत्व पूर्ण विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है, उन सबका परिज्ञान पाठकोंको इसके स्वाध्याय और मनन करनेसे ही होगा, तथापि संक्षेपमें इतना कहना
अनुचित न होगा कि यह ग्रन्थ जितना उपलब्ध है, दो भागोंमें बँटा हुआ है । (१) द्रव्य विभाग (२) सम्यक्त्त्व विभाग । द्रव्य क्या पदार्थ है ? वह गुणोंसे भिन्न है या अभिन्न ? उसमें उत्पत्ति स्थिति विनाश ये तीन परिणाम प्रतिक्षण किस प्रकार होते हैं ? गुण पर्यायोंका क्या लक्षण है ? इत्यादि बातोंका अनेक शंका समाधानों द्वारा स्पष्ट विवेचन पहले विभागमें (पहले अध्यायमें ) किया गया है । इसी विभागमें प्रमाण, नय, निक्षेपोंका विवेचन भी बहुत विस्तारसे किया गया है । दूसरे विभाग (द्वितीय अध्याय ) में जीवस्वरूप, सम्यक्त्व, अष्ट अंग, और अष्ट कर्मोका विवेचन किया गया है । यह विभाग अध्यात्म विषय होनेके कारण प्रथम विभागकी अपेक्षा सर्व साधारणके लिये विशेष उपयोगी है ।
इस ग्रन्थके अवलोकनसे जैनेतर विद्वान् भी जैन सिद्धान्तके तत्त्वविचार और अध्यात्मचर्चाके अपूर्व रहस्यको समझ सकेंगे।
ग्रन्थकारने पांच अध्यायोंमें पूर्ण करनेके उद्देश्यसे ही इस ग्रन्थका पञ्चाध्यायी नाम रक्खा है और इसी लिये अनेक स्थलोंपर कतिपय उपयोगी विषयोंको आगे निरूपण करनेकी उन्होंने प्रतिज्ञा की है । जैसे----.' उक्तं दिङ्मात्रतोप्यत्र प्रसङ्गाहा गृहिव्रत, वक्ष्ये चोपासकाध्यायात्सावकाशात् सविस्तरम् , तथा — उक्तं दिङमात्रमत्रापि प्रसङ्गाद्गुरुलक्षणं, शेषं बिशेषतो वक्ष्ये तत्स्वरूपं जिनागमात् ' इत्यादि प्रतिज्ञावाक्योंसे विदित होता है कि ग्रन्थकारका आशय इस ग्रंथको बहुत विस्तृत बनाने और उसमें समग्र जैन सिद्धान्तरहस्यके समावेश करनेका था, परन्तु कहते हुए हृदय कंपित होता है कि श्रेयांसि वहु विघ्नानि,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org