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________________ wwwwwwwwwww अध्याय । सुबोधिनी टीका। [३१९ अर्थ-जब तक महा अनर्थोंका घर संसार ही इस जीवका सब कुछ है। तब तक इसके सिद्धत्वभाव नहीं होता है किन्तु असिद्धत्व रहता है भावार्थ-जब तक इस जीवके अष्ट कर्मोका सम्बन्ध है तब तक इसके सिद्ध पर्याय नहीं होती है। जीवकी अशुद्ध पर्याय संसारावस्था है। . इसके छूटने पर उसकी शुद्ध पर्याय प्रकट हो जाती है। उसीका नाम सिद्ध पर्याय है। लेश्या-भावलेश्या षडेव विख्याता भावा औदधिकाः स्मृताः। यस्माद्योगकषायाभ्यां द्वाभ्यामेवोदयोद्भवाः॥ ११४५ ॥ अर्थ-लेश्याओंके छह भेद हैं-१ कृष्ण २ नील ३ कापोत ४ पीत ५ पद्म ६ शुक्ल । इन्हीं छह भेदोंसे लेश्यायें प्रसिद्ध हैं। लेश्यायें भी जीवके औदयिक भाव हैं। क्योंकि लेश्यायें योग और कषायोंके उदयसे होती हैं । कर्मोंके उदयसे होनेवाले आत्माके भावोंका नाम ही औदयिक भाव है। भावार्थ-कषायोंके उदयसे रंजित योग प्रवृत्तिका नाम लेश्या है। गोमट्टसारमें भी लेश्याका लक्षण इसी प्रकार है-जोग पउत्ती लेस्सा कसाय उदयाणुरंजिया होई। तत्तोदोण्णं कन्नं बंध चउक्कं सुदिह। अर्थात् कषायोंके उदयसे अनुरंजित (सहित) योगोंकी प्रवृत्तिका नाम ही लेश्या है । कर्मके ग्रहण करनेकी शक्तिका नाम योग है अर्थात् अंगोपांग और शरीर नाम कर्मके उदयसे मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा इन तीन वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणाका अवलम्बन करनेवाली-कर्म ग्रहण करनेकी जो जीवकी शक्ति है उसीका नाम योग है । उस योगके उक्त तीन वर्गणाओंके अवलम्बन करनेसे तीन भेद हो जाते हैं (१) मनोयोग (२) बचनयोग (३) काययोग । जिस वर्गगाका अवलम्बन होता है, योगका नाम भी वही होता है, परन्तु किसी भी एक योगसे कर्म नोकर्म सभीका ग्रहण होता है । इतना विशेष है कि एक समय में एक ही योग होता है। योगोंसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते है । जिस जातिकी योगप्रवृत्ति होती है उसी जातिका कर्मग्रहण होता है। इस जीवके प्रति समयमें अनन्तानन्त वर्गणाओंका समूहरूम-एक समय प्रबद्ध में आता है। उसके आने में :योग ही कारण है। योगके निमित्तसे ज्ञानावरणादि अष्टकर्म और आहारादि नोकर्म अनन्तानन्त परमाणुओंके परिणामको लिये हुए खिंच आते हैं। जो कर्म आते हैं उनमें तीन प्रकारकी वर्गणायें होती हैं (१) गृहीत-जिनको इस जीवने पहले भी कभी ग्रहण किया था (२) * परमाणूहि अणंतहिं वग्गणसण्णा हु होदि एक्का हु। ताहि अणंतर्हि णियमा समयपवद्धो हवे एको। गोमट्टसार। .' अर्थात् अनन्त परमाणुओंकी मिलकर वर्गणा संशा है। ऐसी २ अनंत वर्गणाओंका समूह समय प्रबद्ध कहलाता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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