SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चाध्यायी । [ दूसरा ३१६] केवलज्ञानके अन्तर्गत अनन्त वीर्यका सद्भाव बतलाया है। जहां पर आत्मामें वह अनन्त वीर्य शक्ति प्रकट हो जाती है वहां फिर शारीरिक बल की उसे आवश्यक्ता नहीं पड़ती है । उस अनन्त वीर्य शक्तिको अन्तराय कर्मने रोक रक्खा है । जितना २ अन्तराय कर्मका क्षयोपशम होता जाता है उतना २ ही आत्मिक बल क्षयोपशम रूपसे संसारी जीवों में पाया जाता है । उसी अन्तराय कर्मके दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ऐसे पांच भेद हैं। किसी सेउके यहां बहुतला न भी है परन्तु उसके देनेके परिणाम नहीं होते, समझना चाहिये उसके दानान्तराय कर्मका उदय है । दो आदमी एक दिन और एक ही साथ व्यापार करने निकलते हैं, एक उसमें हानि उठाता, एक लाभ उठाता है, समझना चाहिये कि एकका अन्तराय कर्म तीव्र है, एकका मन्द है । भोग्य - योग्य सामग्री रखखी हुई है परन्तु उसे किसी कारणसे भोग नहीं सक्ता है, समझना चाहिये उसके भोगान्तराय कर्मका उदय है । अन्तराय कर्मने आत्माकी वीर्यादि शक्तियों को रोक रक्खा है । इस प्रकार आठों ही कर्मोंने आत्माकी अनन्त अचिन्त्य शक्तियों को छिपा दिया है इसलिये आत्माकी असली अवस्था प्रकट नहीं हो पाती । आत्मा अल्पज्ञानी नहीं है, अल्पदृष्टा भी नहीं है, मिथ्या दृष्टिभी नहीं है, दुःखी भी नहीं हैं, शरीरावगाही भी नहीं है, स्थूल भी नहीं है, छोटा बड़ा भी नहीं है, और अशक्त भी नहीं है, किन्तु वह अनन्त ज्ञानी - सर्वज्ञ है, सम्यग्दृष्टि है, सर्व ष्ट है, अनन्त शक्तिशाली है, सूक्ष्म है, अगुरुलघु है, आत्मावगाही है, अन्याबाधTET रहित है । इन्ही अचिन्त्य शक्तियोंसे जब आत्मा विकसित होने लगता है अर्थात् जत्र ये आठ गुण उसके प्रकट होजाते हैं तभी वह सिद्ध कहलाने लगता है । आत्माकी शुद्ध अवस्थाका नाम ही सिद्ध है । अथवा ज्ञानादि - शक्तियोंके पूर्ण विकाशका नाम ही सिद्ध है । इसी अवस्थाका नाम मोक्ष है। आत्माकी शुद्धावस्था - सिद्धावस्थाको छोड़ कर मोक्ष और कोई पदार्थ नहीं है । कर्म मल कलङ्कसे रहित आत्माकी स्वाभाविक अवस्थाको ही मोक्ष कहते हैं जब तक कमका सम्बन्ध रहता है तब तक आत्मा मुक्त नहीं कहा जा सक्ता । अर्हन्त देवके यद्यपि घातिया कर्मोंके नष्ट हो जानेसे स्वाभाविक गुण प्रकट हो गये हैं तथापि अघातिया कर्मोंके सद्भावसे प्रतिजीवी गुण प्रकट नहीं हुए हैं अकर्मने अभी तक उन्हें शरीरावगाही ही बना रक्खा है | वेदनीय कर्म यद्यपि अर्हन्त देवके 1 * निरवशेषनिराकृत कर्म मलकलङ्कस्या शरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यऽस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबाब सुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति । अर्थात् समस्त कर्म मल कलङ्कसे रहित अशरीर आत्माकीअचिन्त्य - स्वाभाविक ज्ञानदर्शन सुखवीर्य अव्यावाधा स्वरूप अवस्थाका नाम ही मोक्ष है। सर्वार्थसिद्धि ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy