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________________ % 3D अध्याय ] सुबोधिनी टीका। ___ अर्थ-जब कि अप्रत्याख्यानके उदयसे देशव्रतकी और प्रत्याख्यानके उदयसे महाव्रतकी क्रम क्रमसे क्षति होती है तब अप्रत्याख्यानके उदय समयमें महाव्रत क्यों नहीं हो माता क्योंकि उस समय महाव्रतको रोकनेवाला प्रत्याख्यानका तो उदय रहता ही नहीं और यदि अप्रत्याख्यानके उदयकालमें प्रत्याख्यानका भी उदय माना जाय तो दोनोंका क्रमक्रमसे उदय क्यों कहा है ? उत्तर सत्यं तत्राविनाभावो बन्धसत्वोदयं प्रति । दयोरन्यतरस्यातो विवक्षायां न दृषणम् ॥ ११४१ ॥ अर्थ-अप्रत्याख्यानके उदयकालमें प्रत्याख्यानका भी उदय रहता है इसलिये तो अप्रत्याख्यानके उदयकालमें महाव्रत नहीं होता और पांचवें गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानके उदयका अभाव होनेपर भी प्रत्याख्यानका उदय रहता है इसलिये कथंचित् क्रमसे उदय कहा जाता है तथा अप्रत्याख्यानका उदय कहनेसे प्रत्याख्यानका भी उदय आजाता है क्योंकि अप्रत्याख्यानके बंध उदय और सत्त्व प्रत्याख्यानके बंध उदय और सत्त्वके साथ अविनाभावी हैं, अर्थात् प्रत्याख्यानके बंधोदय सत्त्वके बिना अप्रत्याख्यानके बंध उदय सत्त्व नहीं होसकते। इसलिये चौथे गुणस्थान तक दोनोंका उदय रहते हुए भी अप्रत्याख्यानका उदय कहनेमें कोई दोष नहीं आता । अविनाभावी पदार्थोंमें एकका कथन करनेसे दूसरेका कथन स्वयं होनाया करता है। यहां यह शंका होसकती है कि जब अन्यतरका ही (किसी एकका) प्रयोग करना इष्ट है तब अप्रत्याख्यानके स्थानमें प्रत्याख्यानका ही प्रयोग क्यों नहीं किया जाता अर्थात् जैसे अप्रत्याख्यानके उदयसे प्रत्याख्यानके उदयका बोध होता है उसी प्रकार प्रत्याख्यानका उदय कहनेसे अप्रत्याख्यानके उदयका भी बोध हो जाना चाहिये परंतु इसका उत्तर यह है कि अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानके उदयकी परस्पर विषम व्याप्ति है क्योंकि चौथे गुणस्थान तक अप्रत्याख्यानका उदय तो विना प्रत्याख्यानके उदयके नहीं रहता किंतु पाँच गुणस्थानमें प्रत्याख्यानका उदय अप्रत्याख्यानके उदयके विना भी रह जाता है। इसलिये अप्रत्याख्यानकी जगह प्रत्याख्यानका प्रयोग नहीं होसकता । -असिद्धत्वभावअसिद्धत्वं भवेद्भावो नूनमौदयिको यतः । ---- व्यस्तादा स्यात्समस्तादा जातेः कर्माष्टकोदयात् ॥ ११४२ ॥ अर्थ- असिद्धत्वभाव भी औदयिक भाव है । यह भाव आठों कर्मोके उदयसे होता है । भिन्न २ कर्मोके उदयसे भी होता है और आठों कौके सम्मिलित उदयसे भी होता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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