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________________ wwwwwww पश्चाध्यायी सर्वथा नाश हो जानेसे पूर्ण संयम प्रगट हो जाता है तथापि योगादि आनुषङ्गिक दोषों के कारण उसकी पूर्ण पूर्णता चौदहवें गुणस्थानके अन्तमें ही कही गई है । जहां पर पूर्ण संयम है उसीके उत्तर क्षणमें मोक्ष हो जाती है। यहां पर शंका हो सकी है कि जब चारित्रका नाम ही संयम है तब चारित्र मोहनीयके उदयसे होनेवाले कषाय भावोंका नाम ही असंयत है फिर औदयिक भावोंमें कषाय भाव और असंयत भावको जुदा जुदा क्यों गिनाया गया है। इसका उत्तर यही है कि असंयत व्रताभावको कहते हैं और कषाय आत्माके कलुषित परिणामोंको कहते हैं। यद्यपि जहांपर कलुषित परिणाम हैं वहांपर व्रत भी नहीं हो सके हैं तथापि कार्य कारणका दोनोंमें अन्तर हैं। कषाय भाव व्रताभावमें कारण हैं। इसीलिये मन्तर्भेदकी अपेक्षासे दोनोंको जुदा २ गिनाया गया है, अर्थात् आत्माकी एक ऐसी अवस्था भी होती है कि जहांपर वह व्रतोंको धारण नहीं कर सक्ता है और वह अवस्था आत्माके कलुषित भावोंसे होती है। कलुषित भावोंका नाम ही कषाय है। संयमके मेद-- संयमः क्रियया देधा व्यासादद्वादशधाऽथवा । शुद्धस्वात्मोपलब्धिः स्यात् संयमो निष्क्रियस्य च ॥ १९१८॥ अर्थ-क्रियाकी अपेक्षासे संयमके दो भेद हैं । अथवा विस्तारकी अपेक्षासे उसके बारह भेद हैं । तथा अपने आत्माकी शुद्धोपलब्धि-शुद्धताका होना ही निष्क्रिय-क्रिया रहित संयमका स्वरूप है ।भावार्थ-निष्क्रिय संयमका लक्षण इस प्रकार है-“संसारकारणनिवृ. तिम्प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः समक् चारित्रम्। संसारके कारणोंको दूर करनेवाले सम्यग्ज्ञानीके जिन क्रियाओंसे कर्म आते हैं उन क्रियाओंका शान्त हो जाना ही निष्क्रिय संयम है, अर्थात् संसारको बढ़ानेवाली बाह्य और अभ्यन्तर क्रियाओंका रुक जाना ही निष्क्रिय संयम है । जितनी शुभ अशुभ प्रवृत्ति रूप क्रियायें हैं सब बाह्य क्रियायें हैं। तथा आत्माके जो अविरतादिरूप परिणाम हैं वे सब अभ्यन्तर क्रियायें हैं, इन दोनों प्रकारकी क्रियाओंकी निवृत्ति हो जाना ही निष्क्रिय संयम है, और वही आत्माकी शुद्धावस्था है। सक्रिय संयम शुभ प्रवृत्ति रूप है उसके दो भेद हैं, अब उन्हें ही कहते हैं। इन्द्रियां और मनके राकनस हाता.ह।... ... अर्थ-सक्रिय संयमके पहले भेदका नाम इन्द्रिय निरोध संयम है । वह पांची इन्द्रियां और मनके रोकनेसे होता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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