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पचाध्यायी ।
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अर्थ- - यह जीव असंख्यात प्रदेशवाला है । तथापि अखण्ड द्रव्य है अर्थात् इसके प्रदेश सब अभिन्न हैं तथा सम्पूर्ण द्रव्योंसे यह भिन्न है तथापि उनके बीचमें स्थित है । फिर भी जीवका स्वरूप
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अथ शुडक्यादेशाच्छुखश्चैकविधोपि यः ।
स्याद्विधा सोपि पर्यायान्मुक्तामुक्तप्रभेदतः ॥ ३३ ॥ अर्थ- शुद्ध नयकी अपेक्षासे यह जीव द्रव्य शुद्धस्वरूप है, एक रूप हैं, उसमें भेद कल्पना नहीं है, तथापि पर्याय दृष्टि से यह जीव दो प्रकार है एक मुक्त जीव दूसरा अमुक्त जीव ।
भावार्थ - निश्चय नय उसे कहते हैं जो कि वस्तुके स्वाभाविक भावको ग्रहण करे और व्यवहार नय वस्तुकी अशुद्ध अवस्थाको ग्रहण करता है । जो भाव पर निमित्त से होते हैं। उन्हें ग्रहण करनेवाला ही व्यवहार नय है । निश्चय नयसे जीवमें किसी प्रकारका भेद नहीं हैं इसलिये उक्त नयसे जीव सदा शुद्ध स्वरूप है तथा एक रूप है, परन्तु कर्मजनित अवस्थाके भेदसे उसी जीवके दो भेद हैं। एक संसारी, दूसरा मुक्त । जो कर्मोपाधि सहित आत्मा है वह संसारी आत्मा है और जो उस कर्मोपाधिसे रहित है वही मुक्त अथवा सिद्ध आत्मा कहलाता है । ये दो भेद कर्मोपाधिसे हुए हैं । और कर्मोपाधि निश्चयनयसे जीक्का स्वरूप नहीं है इसलिये जीव में द्रव्य दृष्टिसे भेद नहीं किन्तु पर्याय दृष्टिसे भेद है ।
संसारी जीवका स्वरूप
बडो यथा स संसारी स्यादलब्धस्वरूपवान् ।
मूर्छितोना दिलोष्टाभिर्ज्ञानाद्यावृतिकर्मभिः ॥ ३४ ॥
अर्थ — जो आत्मा कर्मोंसे बंधा हुआ है वही संसारी है । संसारी आत्मा अपने यथार्थ स्वरूपसे रहित हैं और अनादिकालसे ज्ञानावरणीय आदिक आठ कर्मोंसे मूर्तित
रहा है। भावार्थ- आत्माका स्वरूप शुद्ध ज्ञान, शुद्ध दर्शन, शुद्ध वीर्य आदि अनंत गुणात्मक है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंने उन गुणोंको ढक दिया है । इन्हीं आठों कमे में जो मोहनीय कर्म हैं उसने उन्हें विपरीत स्वादु बना दिया है । इसी लिये संसारी आत्मा असली' स्वभावका अनुमान नहीं करता है । जब यह दोष और आवरण मल आत्मासे हट जाता हैं तंत्र वही आत्मा निज शुद्धरूप अनुभव करने लगता है ।
जीव कर्मका सम्बन्ध अनादिसे है
यथानादिः स जीवात्मा यथानादिश्च पुद्गलः । द्वयोर्बन्धोप्यनादिः स्वात् सम्बन्धो जीवकर्मणोः ॥ ३५ ॥