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________________ २९८ ] पश्चाध्यायी। अशानका स्वरूपअस्त्यात्मनो गुणो ज्ञानं स्वापूर्वार्थावभासकम् । मूर्छितं मृतकं वा स्यादपुः स्वावरणोदयात् ॥ ११०४ ॥ अर्थ-आत्माका एक ज्ञान गुण है वह अपने स्वरूपका और दूसरे अनिश्चित पदार्थोंका प्रकाशक है, परन्तु ज्ञानावरण कर्मके उदयसे वह ज्ञान गुण मूर्छित हो जाता है अथवा मृतकके समान हो जाता है । भावार्थ जिस प्रकार जीवके चले जानेसे मृतक शरीर जड़-अज्ञानी है उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मने आत्माके ज्ञान गुणको इतना ढक दिया है कि वह अज्ञानी प्रतीत होता है । यही अज्ञान अवस्था जीवका अज्ञान भाव कहलाता है । यह भाव जब तक आस्मामें केवलज्ञान नहीं होता है तब तक बराबर उदित रहता है। अज्ञानभाव बन्धका कारण नहीं हैअर्थादौदयिकत्वेपि भावस्यास्याऽप्यवश्यतः। ज्ञानावृत्त्यादिवन्धेस्मिन् कार्ये वै स्यादहेतुता ॥११०५॥ अर्थ-यद्यपि अज्ञानभाव औदयिक भाव अवश्य है तथापि वह नियमसे ज्ञानाव. रणादि कर्मोके बन्धका कारण नहीं है । नापि मंक्लेशरूपोऽयं यः स्याद् बन्धस्य कारणम् । यः क्लेशो दुःखमूर्तिः स्यात्तद्योगादस्ति क्लेशवान् ॥ ११०६ ॥ अर्थ- अज्ञान भाव संक्लेश रूप भी नहीं है जो कि बन्धका कारण हो, परंतु जो क्लेश दुःखकी मूर्ति समझा जाता है, उसके सम्बन्धसे अवश्य क्लेशवान् है । भावार्थ-अज्ञान भाव बन्धका कारण नहीं है परन्तु दुःखमूर्ति अवश्य है । जो संक्लेश बन्धका कारण समझा जाता है उस संक्लेश रूप अज्ञान भाव नहीं है परन्तु जो क्लेश दुःख स्वरूप समझा जाता है उस केश रूप अवश्य है। दुःखमूर्तिश्च भावोऽयमज्ञानात्मा निसर्गतः। - वज्राघात इव ख्यातः कर्मणामुदयो यतः ॥ ११०७॥ अर्थ--यह अज्ञान रूप भाव स्वभावसे ही दुःखकी मूर्ति है । क्योंकि काँका उदय मात्र ही वज्रके आघात ( चोट ) के समान दुःखदाई है । भावार्थ-यद्यपि बन्धका कारण तो केवल मोहनीय कर्म है परन्तु आत्माको दुःख देनेवाला सभी कोका उदय है। शङ्काकार--- ननु कश्चिद्गुणोप्यस्ति सुखं ज्ञानगुणादिवत् । दुःखं तबैकृतं पाकात्तद्विपक्षस्य कर्मणः ॥ ११०८ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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