SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय] सुबोधिनी टीका। ___ अर्थ-कहीं पर जैसा द्रव्यलिंग होता है वैसा ही भावलिंग भी होता है। कहीं पर द्रव्यलिंग दूसरा होता है और भावलिंग दूसरा होता है। उदाहरणयथा दिविजनारीणां नारीवेदोस्ति नेतर । देवानां चापि सर्वेषां पाकः पुवेद एव हि ॥ १०८८ ॥ अर्थ-जितनी भी चारों निकायोंके देवोंकी देवियां हैं उन सबके स्त्रीवेद ही भाववेद होता हैं, दूसरा नहीं होता । और जितने भी देव हैं उन सबके पुंवेद ही भाववेद होता है दूसरा नहीं होता । भावार्थ-देव देवियों के द्रव्यवेद और भाववेद दोनों एक ही होते हैं। भोग भूमौ च नारीणां नारीवेदो नचेतरः।। पुंवेदः केवलः पुंसां नान्यो वाऽन्योन्यसंभवः ॥ १०८९॥ अर्थ-भोगभूमिमें स्त्रियोंके स्त्रीवेद ही भाववेद होता है दूसरा नहीं होता ? और वहाँके पुरुषोंके केवल पुंवेद ही भाववेद होता है, दूसरा नहीं होता अथवा इन दोनोंमें भी परस्पर विषमता नहीं होती। भावार्थ-देव देवियों के समान इनके भी समान ही वेद होता है, देव देवियां और भोगभूमिके स्त्री पुरुष इनके नपुंसक वेद तो दोनों प्रकारका होता ही नहीं 'वेद और स्त्रीवेद भी द्रव्यभाव समान ही होता है विषम नहीं। नारकाणां च सर्वेषां वेदश्चैको नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्रीवेदो न वा पुमान् ॥ १०९०॥ अर्थ-सम्पूर्ण नारकियोंके एक नपुंसक वेद ही होता है । वही तो द्रव्यवेद होता है और वही भाववेद होता है । नारकियोंके द्रव्यसे अथवा मावसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद सर्वया नहीं होते। तिर्यग्जातौ च सर्वेषां एकाक्षाणां नपुंसकः । वेदो विकलत्रयाणां क्लीयः स्यात् केवलः किल ॥ १०९१ ॥ पञ्चाक्षासंज्ञिनां चापि तिरश्वां स्यान्नपुंसका। द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्यः कदाचन ॥ १०९२॥ अर्थ-तिर्यञ्च जातिमें सभी एकेन्द्रिय जीवोंके नपुंसकवेद ही होता है, जितने भी विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ) हैं उन सबके केवल नपुंसक वेद ही होता है। और जितने भी असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय हैं उन सबके भी केवल नपुंसक वेद ही होता है । वही द्रव्य बेद होता है और वही भाव वेद होता है। दूसरा वेद कभी नहीं होता।। कर्मभूमौ मनुष्याणां मानुषीणां तथैव च।। तिरश्चां वा तिरश्चीनां त्रयो वेदास्तथोदयात् ॥ १०९३ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy