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________________ अध्याय।] सुबोधिनी टीका। [२९१ उदयसे अरुचि हो उसे अरति कहते हैं। जिसके उदयसे शोक हो उसे शोक कहते हैं। जिसके उदयसे उद्वेग ( भय ) हो उसे भय कहते हैं। जिसके उदयसे दूसरेके दोर्षोंको यह जीव प्रकट करे और अपने दोषोंको छिपावे उसे जुगुप्सा कहते हैं। अपवा दूसरेसे घृणा करना भी जुगुप्सा है। जिसके उदयसे स्त्रीत्व भाव हो अर्थात् पुरुषके साथ रमण करनेकी वाञ्छा हो उसे स्त्री वेद कहते हैं। जिसके उदयसे पुंस्त्व माव हो अर्थात् स्त्रीके साथ रमण करनेकी वान्छा हो उसे 'वेद कहते हैं। जिसके उदयसे नपुंसकत्व भाव हो अर्थात् स्त्री पुरुष दोनोंसे रमण करनेकी वाञ्छा हो उसे नपुंसक वेद कहते हैं। ये नौ नो कषाय कमौके भेद हैं। इन्हींके उदयसे ऊपर कहे हुए कार्य होते हैं। इतना विशेष है कि कहीं पर जैसा भाव वेद होता है वैसा ही द्रव्य वेद होता है परंतु कहीं कहीं पर द्रव्य वेद दूसरा होता है और भाव वेद दूसरा । आत्माके भावोंको भाव वेद कहते हैं और शरीरके आकारको द्रव्य वेद कहते हैं। यदि कोई पुरुष पुरुषके साथ रमण करनेकी वाञ्छा करे तो उसके द्रव्य वेद तो पुरुष वेद है परन्तु भाव वेद स्त्री वेद है। प्रायः अधिक तर द्रव्यके अनुकूल ही भाव होता है, किंतु कहीं २ पर विषमता भी हो जाती है । इन तीनों वेदोंके उदयसे जैसे इस जीवके परिणाम होते हैं उसका क्रम आचार्योंने इस प्रकार बतलाया है । पुरुषकी काम वासना तृणकी अग्निके समान है। जिस प्रकार तृणकी अग्नि उत्पन्न भी शीघ्र होती है और भस्म होकर शान्त भी शीघ्र ही होजाती है। स्त्रीकी काम वासना कण्डेकी अग्नि (उपलोंकी अग्नि) के समान होती है कंडेकी अग्नि उत्पन्न भी देरसे होती है और ठहरती भी अधिक काल तक है। इसी प्रकार स्त्रियोंकी काम वासना विना निमित्तकी प्रबलताके सदा दबी ही रहती है परन्त प्रबल निमित्तके मिलने पर उत्पन्न होकर फिर शान्त भी देरसे होती है। इसी लिये आवश्यक है कि स्त्रियोंको ऐसे निमित्तोंसे बचाया जावें । और सदा सदुपदेशकी उन्हें शिक्षा दी जावे । ऐसी अवस्थामें उनकी कामवासना कमी दीप्त नहीं हो सक्ती है परन्तु आजकलके शिक्षितम्मन्य अतस्वज्ञ अपने भावोंसे उनकी तुलना करके उनके जीवनको कलङ्कित और दुखदाई बनानेका व्यर्थ ही उद्योग करते हैं । यह उनका दयाका परिणाम केवल हिंसामय है और अनयाँका घर है। यदि स्वभावमृदु स्त्रियोंको सदा सन्मागकी शिक्षा दी जावे तो वे कभी नहीं उन्मार्गकी और पैर रखेंगी। और ऐसी ही निष्कलङ्क स्त्रियोंकी सन्तान संसारका कल्याण करनेमें समर्थ हो सक्ती हैं । नपुंसककी काम वासना ईंटोंके पाक (अवा)के समान होती है अर्थात् उसकी अग्नि दोनोंकी अपेक्षा अत्यन्त दीप्त होती है । संसारी जीव इन्हीं वेदोंके उदयसे सताये हुए हैं। वास्तवमें विचार किया जाय तो न्यों२ विषय सेवनकी तरफ यह मनुष्य माता है त्यों २ इसकी अशान्ति और लालसा बढ़ती ही जाती है, खेद तो इस बातका है कि इनके अधिक सेवनसे मनुष्य तृप्तिकी वाञ्छा करता है परन्तु उस अज्ञको विदित नहीं
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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