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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [ २८३ परस्पर विरोधी हैं इस लिये उनका एक पदार्थ में रहना अशक्य है । भावार्थ- पदार्थ द्रव्य दृष्टिसे सदा रहता है उसका कभी भी नाश नहीं होता है । परन्तु पर्याय दृष्टिसे वह अनित्य है । जैसे मनुष्य मरकर देव हो जाता है । यहां पर जीवकी मनुष्य पर्यायका तो नाश हो गया और देव पयार्यका उत्पाद हो गया परन्तु जीवका न तो नाश हुआ है और न उत्पाद हुआ है । जो जीव मनुष्य पयार्यमें था वही जीव अब देव पयार्यमें है, इस लिये जीवद्रव्यकी अपेक्षासे तो जीव नित्य है परन्तु जीवकी पयायोंकी अपेक्षा से जीब अनित्य है अतः जीवमें कथंचित् नित्यता, और कथंचित् अनित्यता दोनों ही धर्म रहते हैं, परन्तु जिस अपेक्षासे नित्यता है उस ओक्षासे अनित्यता नहीं है, यदि जिस अपेक्षा से जीव नित्यता है उसी अपेक्षा से उसमें अनित्यता भी मानी जावे तब तो अवश्य बिशेष संभव है परन्तु अपेक्षाके न समझने से ही मिथ्या दृष्टि इन धर्मोंको विरोधी समझता है। और अप्यनात्मीयभावेषु यावन्नो कर्मकर्मसु । अहमात्मेति बुद्धिर्या दृङ्मोहस्य विजृम्भितम् ॥ १०५१ ॥ अर्थ - कर्म - ज्ञानावरणादि, नो कर्म-शरीरादि जो आत्मासे भिन्न पदार्थ हैं उन पदार्थों ९ मैं आत्मा हूं, इस प्रकार जो बुद्धि होती है वह दर्शनमोहकी चेष्टा है । भावार्थदर्शन मोहनीयके उदयसे यह जीव शरीरादि जड़ पदार्थों को ही आत्मा समझता है । और अदेवे देवबुद्धिः स्यादगुरौ गुरुधीरिह । अधर्मे धर्मवज्ज्ञानं दृङ्मोहस्यानुशासनात् ॥ १०५२ ॥ अर्थ-दर्शन मोहनीय कर्मके उदयसे यह जीव अदेव गुरुबुद्धि और अधर्म धर्मबुद्धि करता है । और भी- देवबुद्धि, अगुरुमें धनधान्यसुताद्यर्थ मिथ्यादेवं दुराशयः । सेवते कुल्लितं कर्म कुर्याद्वा मोहशासनात् ॥ १०५३ ॥ अर्थ - मोहनीय कर्मके वशीभूत होकर यह जीव अनेक खोटे २ आशयोंकों हृदयमें रखकर धन धान्य पु आदिकी पार्टिके लिये मिथ्य देवकी सेवा करता है । तथा नीच कर्म भी करता है । भवायें- जो लोग वर सेन, माता आदि कुदेवोंकी पूजा करते हैं तथा जो ये सब मिध्यास्व कर्मके भूत हैं । इच्छासे चण्डी, मुण्डी, भैरों, नगरहिंसादिक निंद्य कार्यों में प्रवृत्त होते हैं
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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