SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 100:11 पञ्चाध्यायीं । 'दूसरा अनुभव और आगमसे भी सिद्ध है। भावार्थ- हर एक संसारी जीवके मिथ्यात्वका उदय हो रहा है यह बात आगमसे तो सिद्ध है ही, किंतु युक्ति और अपने अनुभव से भी सिद्ध है ।" इसी बात को नीचे लोकसे स्पष्ट करते हैं सर्वसंसारिजीवानां मिथ्याभावो निरन्तरम् । स्याद्विशेषोपयोगीह केषाञ्चित् संज्ञिनां मनः ॥ १०३२ ॥ अर्थ- सम्पूर्ण संसारी जीवोंके निरन्तर मिथ्याभाव होरहा है, परन्तु किन्हीं संज्ञी जीवोंका मन उस मिथ्याभावकी ओर विशेष उपयोगवाला हो रहा है । भावार्थ - यद्यपि सामान्य रीति से असंज्ञी जीवों तक तो सभीके मिथ्यात्व कर्मका उदय होरहा है, संज्ञियों में भी बहु भाग जीव मिथ्यात्वसे ग्रसित हो रहे हैं, वे सभी उस मिथ्यात्वके उदयसे उसी प्रकार मूर्च्छित होरहे हैं जिस प्रकार कि गाढ़ रीतिसे मदिरा पीनेवाला मूर्छित होजाता है। जिस प्रकार मद्यपायी पुरुषको कुछ खबर नहीं रहती है उसी प्रकार उन जीवों को भी कुछ खबर नहीं है, कम फलको भोगते जाते हैं और नवीन कर्मोका बन्ध भी करते जाते हैं । अनन्त कालतक उनकी ऐसी ही अवस्था रहती है। वे अपने समीचीन गुण पुञ्जको खोचुके हैं, निपट अज्ञानी भी बन चुके हैं, परन्तु उनकी यह अवस्था अज्ञानभारों में ही लिप्त रहती है असंज्ञी जीव कर्मबन्ध करने में तथा उसका फल भोगने में बुद्धिपूर्वक उपयुक्त नहीं होसकते हैं । बुद्धिपूर्वक उपयोग लगाने में संज्ञी जीव ही समर्थ हैं इसलिये कितने ही संज्ञी जीव अपने उपयोगको उस मिथ्याभावकी ओर विशेषतासे लगाते हैं, अर्थात् वे मिथ्या सेवनमें जान बूझ कर अपनी प्रवृत्ति करते हैं । तथा दूसरे जीवों को भी उसमें लगाते हैं ऐसे ही जीव बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व सेवी कहे जाते हैं । अथवा तेषां वा संज्ञिनां नूनमस्त्यनवस्थितं मनः । कदाचित् सोपयोगि स्यान्मिथ्याभावार्थभूमिषु ॥ १०३३ ॥ अर्थ - अथवा उन संज्ञी जीवोंका मन चञ्चल रहता है इसलिये मिथ्याभाव पूर्वक पदार्थों में कमी २ उपयुक्त होता है । भावार्थ- कोई संज्ञी जीव मिथ्यात्व प्रवृत्ति में सदा लगे रहते हैं और कोई कभी २ लगते हैं । सारांश ततो न्यायागतो जन्तोर्मिथ्याभावो निसर्गतः । मोहस्योदयादेव वर्त्तते वा प्रवाहवत् ॥ १०३४॥ 'अर्थ - इसलिये यह बात न्यायसंगत है कि इस जीवके दर्शनमोहनीय कर्म के उदयसे ही स्वयं मिथ्याभाव हो रहा है, और उसका प्रवाह अनादिकाल से अनन्तकाल तक चला जाता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy